भूमिका – इस संसार में हजारों व्यक्ति हर रोज पैदा होते हैं और हजारों ही मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं। उनका नाम तक कोई नहीं जानता । पर कई लोग ऐसे होते हैं जिनके जाने पर लोगों की आँखों से आँसू नहीं थमते। लोग उनका नाम आदर और श्रद्धा से लेते हैं। ऐसे लोग जब तक विश्व में जीवित रहते हैं, लोगों के हृदय सम्राट् बने रहते हैं। मरने के बाद वे लोगों के गले का हार बन जाते हैं। वे मर कर भी अमर हो जाते हैं। ऐसे ही लोग
महापुरुष होते हैं, युग प्रवर्त्तक होते हैं, जननायक होते हैं। ऐसे ही तेजस्वी महापुरुषों में एक थे – मोहनदास करमचन्द गाँधी ।
महापुरुष का परिचय – मोहनदास करमचन्द गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1896 ई० में कठियाबाड़ के पोरबन्दर नगर में हुआ था। उनके पिता राजकोट रियासत के दीवान थे। गाँव की पाठशाला में ही उन्होंने प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की थी। तेरह वर्ष की अवस्था में उनका विवाह कस्तूरबा से हो गया।
महापुरुषत्व का आधार – गाँधीजी की आवाज में शक्ति थी। उनके संकेत पर भारतवासी बड़े-से-बड़ा बलिदान करने को तैयार रहते थे। उनके नेतृत्व में लाखों युवकों-युवतियों, बच्चों – बूढ़ों ने स्वतंत्रता संघर्ष में सक्रिय भाग लिया और गाँधीजी तथा भारतीय जनान्दोलन के फलस्वरूप भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हो गया। गाँधीजी सत्य और अहिंसा की साक्षात् मूर्ति थे। उन्होंने साध्य की साधनों के अच्छे होने पर बल दिया। साध्य चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो उसके लिए अपनाए जाने वाले साधन भी अच्छा होना चाहिए।
सामान्य जन के लिए उनका संदेश — गाँधीजी एक सच्चे समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज से छुआछूत मिटाने का भरसक प्रयास किया। हरिजनों को समाज में सम्मान दिलाने की कोशिश की। वे स्त्री शिक्षा पर भी बहुत बल देते थे। उन्होंने ‘बुनियादी शिक्षा प्रणाली’ का सूत्रपात किया । गाँधीजी ग्रामीण उद्योग-धन्धों को विकसित करना चाहते थे। यही कारण है कि उन्होंने खादी का भरपूर प्रचार किया। श्रम का महत्त्व वे भली प्रकार से समझते थे। वे स्वयं चरखा काटते थे।
उपसंहार – स्वतंत्र भारत में उन्होंने कभी किसी पद की कामना नहीं की। वे त्याग की जीती-जागती मूर्ति थे। 30 जनवरी, 1948 ई० को नाथूराम गोडसे की गोली ने उस दिव्यात्मा को हमसे छीन लिया। उनका नाम भारत के इतिहास में सदा अमर रहेगा।