अपठित गद्यांश – Apathit Gadyansh

नीचे दिये गये गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर पूछे गये प्रश्नों के उत्तर संक्षेप में दीजिए-

1. मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द प्राप्ति है। यह तो सभी जानते हैं कि मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है। आवश्यकता की पूर्ति होने पर सभी को सुख होता है। पर, उस सुख और उत्सव के आनन्द में बड़ा फर्क है। आवश्यकता अभाव सूचित करती है। उससे यह प्रकट होता है कि हममें किस बात की कमी है। मनुष्य जीवन ही ऐसा है कि वह किसी भी अवस्था में यह अनुभव नहीं कर सकता कि उसके लिए कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। एक के बाद दूसरी वस्तु की चिन्ता उसे सताती ही रहती इसलिए किसी एक आवश्यकता की पूर्ति से उसे जो सुख होता है, वह अत्यन्त क्षणिक होता है; क्योंकि तुरन्त ही दूसरी आवश्यकता उपस्थित हो जाती है। उत्सव में हम किसी बात की आवश्यकता का अनुभव नहीं करते। यही नहीं, उस दिन हम अपने काम-काज छोड़कर विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति करते हैं। यह आनन्द जीवन का आनन्द है, काम का नहीं।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) मनुष्य किसलिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है?
(ख) उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य क्या है?
(ग) मनुष्य को एक के बाद दूसरी चिन्ता क्यों सताती रहती है?
(घ) आवश्यकता की पूर्ति का सुख क्षणिक क्यों होता है?
(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का एक उपयुक्त शीर्षक दें।

उत्तर
(क) मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है ।
(ख) उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द की प्राप्ति है
(ग) मनुष्य को एक के बाद दूसरी चिन्ता इसलिए सताती रहती है क्योंकि मनुष्य किसी भी अवस्था में यह अनुभव नहीं कर सकता है कि अब उसके पास आवश्यकता नहीं रह गई है।
(घ) आवश्यकता पूर्तिका सुख क्षणिक होता है क्योंकि एक आवश्यकता पूर्ति के तुरन्त बाद दूरी आवश्यकता उपस्थित हो जाती है।
(ङ) शीर्षक: ‘मनुष्य और आवश्यकता’ ।

2. विश्वलिपि के रूप में स्वीकार किए जाने की दृष्टि से सबसे अधिकं गुण
संभवतः देवनागरी लिपि में ही मिल सकते हैं। इस तथ्य पर सबसे अधिक चिंतन आचार्य विनोबा भावे का रहा है; जिन्होंने देवनागरी लिपि को न केवल इस देश की विभिन्न भाषाओं के लिए उपयोगी बताया था, बल्कि पड़ोसी देशों और विश्व की अन्य भाषाओं के लिए भी सुविधाजनक माना था। भारतीय भाषाओं की लिपियों के संबंध में उनका कहना था – “हिंदुस्तान की एकता के लिए हिन्दी भाषा जितना काम करेगी, उससे कहीं अधिक काम देवनागरी लिपि कर देगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान की समस्त भाषाएँ देवनागरी में ही लिखी जाएँ, देवनागरी लिपि सब भाषाओं में चले। इसका मतलब दूसरी लिपियों का निषेध नहीं है। दोनों लिपियाँ साथ चलेंगी।” विनोबा जी चाहते थे कि सभी भारतीय भाषाएँ अपनी-अपनी लिपियों के साथ-साथ वैकल्पिक लिंपि के रूप में देवनागरी का भी प्रयोग करें। इससे देश की भाषाई एकता में सहायता मिलेगी। वे चाहते थे कि देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता और सरलता को देखते हुए, यदि पड़ोसी देश भी इस लिपि का प्रयोग करें, तो अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना में अवश्व वृद्धि होगी।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) विश्वलिपि के अनुसार सबसे अधिक गुण किस लिपि में हैं?
(ख) देवनागरी लिपि के संबंध में विनोबा भावे ने क्या कहा था?
(ग) विनोबा भावे क्या चाहते थे?.
(घ) संपूर्ण देश में देवनागरी के प्रयोग से क्या लाभ था?
(ङ) देवनागरी लिपि का प्रयोग पड़ोसी देशों में होने से क्या लाभ होगा?

उत्तर
(क) विश्वलिपि के अनुसार सबसे अधिक गुण देवनागरी लिपि में हैं।
(ख) देवनागरी लिपि के संबंध में विनोबा भावे ने कहा था “हिन्दुस्तान की एकता के लिए हिन्दी भाषा जितना काम करेगी, उससे कहीं अधिक काम देवनागरी लिपि कर देगी। इसलिए मैं चाहता हूँ कि हिन्दुस्तान की समस्त भाषाएँ देवनागरी में लिखी जाएँ । देवनागरी सब भाषाओं में चले। इसका मतलब दूसरी लिपियों का निषेध नहीं है। दोनों लिपियाँ साथ चलेंगी।
(ग) विनोबा भावे चाहते थे कि सभी भारतीय भाषाएँ अपनी-अपनी लिपियों के साथ-साथ वैकल्पिक लिपि के रूप में देवनागरी का प्रयोग करें।
(घ) संपूर्ण देश में देवनागरी लिपि के प्रयोग से देश की भाषाई एकता सुदृढ़ होगी।
(ङ) देवनागरी लिपि का प्रयोग यदि पड़ोसी देश भी करेंगे तो अंतर्राष्ट्रीय सद्भावना में निश्चित ही वृद्धि होगी ।

3. ग्राम- समस्याओं का निराकरण केवल मस्तिष्क – बल या बुद्धि-बल से नहीं हो सकता। उसके लिए वास्तविक प्रत्यक्ष अनुभव की आवश्यकता है। यह अनुभव दूर से नहीं हो सकता, लिखित विवरणों और आँकड़ों से भी नहीं, पूछताछ या जाँच-पड़ताल और दौरा करने से भी नहीं । कारण, विभिन्न प्रांतों के गाँवों की विभिन्न समस्याएँ हैं। कुछ समस्याओं में समानता है और कुछ में विषमता भी । बहुत संभव है कि एक जिले के गाँवों के साथ जो जटिल समस्याएँ लगी हुई हैं, वे दूसरे जिले के गाँवों के साथ न हों। पर अधिकांश गाँव, कम से कम अस्सी प्रतिशत गाँव- सारे देश में ऐसे ही हैं, जिनकी समस्याएँ और आवश्यकताएँ बहुत कुछ एक-सी हैं। जब तक पूर्ति के प्रयत्न न होंगे, गाँवों की दुर्दशा बनी रहेगी और पूर्ति तभी होगी, जब गाँवों में कुछ दिन रहकर वहाँ की आवश्यकताओं को समझा जाएगा ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) ग्राम की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए प्रत्यक्ष अनुभव क्यों आवश्यक है ?
(ख) प्रत्यक्ष अनुभव किस प्रकार पाया जा सकता है?
(ग) गाँवों की दुर्दशा कब तक बनी रहेगी?
(घ) ‘अनुभव’ शब्द में कौन सा उपसर्ग है?
(ङ) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक लिखिए।

उत्तर
(क) ग्राम की समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए प्रत्यक्ष अनुभव इसलिए आवश्यक है क्योंकि ग्राम की समस्याओं का निराकरण केवल मस्तिष्क – बल या बुद्धि बल से नहीं हो सकता ।
(ख) प्रत्यक्ष अनुभव ग्राम समस्याओं के निराकरण करने से प्राप्त किया जा सकता है।
(ग) गाँवों की दुर्दशा तब तक ऐसी ही बनी रहेंगी जब समस्याओं के निराकरण के समुचित प्रयोग न होंगे।
(घ) अनु
(ङ) शीर्षक : ‘ग्राम- समस्या’ ।

4. विश्वविद्यालय कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो समाज से काटकर अलग की जा सके। समाज दरिद्र है तो विश्वविद्यालय भी दरिद्र होंगे; समाज कदाचारी है, तो विश्वविद्यालय भी कदाचारी होंगे और समाज में अगर लोग आगे बढ़ने के लिए गलत रास्ते अपनाते हैं तो विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र भी सही रास्तों को छोड़कर गलत रास्तों पर अवश्य चलेंगे। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में जो अशान्ति फैली है, जो भ्रष्टाचार फैला है, वह सब का सब समाज में फैलकर यहाँ तक पहुँचा है। समाज में जब सही रास्तों का आदर था, ऊँचे मूल्यों की कद्र थी, तब कॉलेजों में भी शिक्षक और छात्र गलत रास्तों पर कदम रखने से घबराते थे। लेकिन अब समाज ने विशेषतः राजनीति ने, ऊँचे मूल्यों की अवहेलना कर दी और अधिकांश लोगों के लिए गलत रास्ते ही सही बन गये तो फिर उसका प्रभाव कॉलेजों और विश्वविद्यालयों पर भी पड़ना अनिवार्य हो गया। छात्रों की अनुशासनहीनता की जाँच करने वाले लोग परिश्रम तो खूब करते हैं, किन्तु असली बात बोलने में घबराते हैं। सोचने की बात यह है कि पहले के छात्र सुसंयत क्यों थे? अब वे उच्छृंखल क्यों हो रहे हैं? किसने किसको खराब किया है? चाँद ने सितारों को बिगाड़ा है या सितारों ने मिलकर चाँद को खराब कर दिया?

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 50 शब्दों में):
(क) समाज से काटकर किसको अलग नहीं किया जा सकता?
(ख) विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र कब गलत रास्तों पर चलेंगे?
(ग) कब शिक्षक और छात्र गलत रास्ते पर कदम रखने से घबराते थे?
(घ) कौन असली बात बोलने से घबराते हैं?
(ङ) ऊँचे मूल्यों की अवहेलना का नतीजा क्या हुआ?

उत्तर
(क) समाज से काटकर विश्वविद्यालय को अलग नहीं किया जा सकता ।
(ख) जब तक समाज के लोग गलत रास्तों पर चलते रहेंगे, तब तक विश्वविद्यालय के शिक्षक तथा छात्र गलत रास्ते पर चलेंगे।
(ग) जब ऊँचे मूल्यों की कद्र थी, तब कॉलेजों में भी शिक्षक और छात्र गलत रास्तों पर कदम रखने से घबराते थे ।
(घ) छात्रों की अनुशासनहीनता की जाँच करनेवाले लोग परिश्रम तो खूब करते हैं, किन्तु असली बात बोलने में घबराते हैं ।
(ङ) ऊँचे मूल्यों की अवहेलना का नतीजा यह हुआ कि अधिकांश लोगों के लिए गलत रास्ते ही सही बन गए ।

5. अब्दुर्रहीम खानखाना का जन्म 1553 ई० में हुआ था। इनकी मृत्यु सन् 1625 ई० में हुई। ये अरबी, फारसी और संस्कृत के विद्वान थे ही हिन्दी के विख्यात कवि भी थे। ये सम्राट् अकबर के दरबार के नवरत्नों में थे। उनमें हिन्दी के एक अन्य प्रसिद्ध कवि गंग भी थे। रहीम कवि अकबर के प्रधान सेनापति और मंत्री थे। इन्होंने अनेक युद्धों में भाग लिया था। युद्ध में सफलता प्राप्ति के कारण अकबर ने इन्हें जागीर में बड़े-बड़े सूबे दिए थे। रहीम बड़े परोपकारी और दानी भी थे। इनके हृदय में दूसरे कवि के लिए बड़े सम्मान का भाव रहता था। गंग कवि के एक छप्पय पर रहीम ने उन्हें छत्तीस लाख रुपये दे दिए थे। जब तक रहीम के पास सम्पत्ति थी, तब तक वह दिल खोलकर दान देते रहे। रहीम की काव्य उक्तियाँ बड़ी मार्मिक हैं क्योंकि वे हृदय से स्वाभाविक रूप से निःसृत हुई हैं।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) रहीम का जन्म और मृत्यु कब हुआ था?
(ख) रहीम किन विषयों के विद्वान तथा किसके प्रसिद्ध कवि थे?
(ग) रहीम बड़े परोपकारी और दानी थे। कैसे?
(घ) किनकी काव्य उक्तियाँ मार्मिक हैं और क्यों?
(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दें।

उत्तर
(क) रहीम का जन्म 1553 ई० और मृत्यु 1625 ई० में हुआ था ।
(ख) रहीम अरबी, फारसी और संस्कृत के विद्वान तथा हिन्दी के प्रसिद्ध कवि थे।
(ग) रहीम के हृदय में दूसरे कवि के लिए बड़े सम्मान का भाव रहता था। गंग कवि के एक छप्पय पर रहीम ने छत्तीस लाख रुपये दे दिए थे।
(घ) रहीम की काव्य उक्तियाँ बड़ी मार्मिक हैं क्योंकि वे हृदय से स्वाभाविक रूप से निःसृत हुई हैं।
(ङ) शीर्षक: ‘कवि रहीम’ ।

6. अपने जीवन के अंतिम वर्षों में डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा की उत्कट अभिलाषा थी कि सिन्हा लाइब्रेरी के प्रबन्ध की उपयुक्त व्यवस्था हो जाए। ट्रस्ट पहले से मौजूद था लेकिन आवश्यकता यह थी कि सरकारी उत्तरदायित्व भी स्थिर हो जाए। ऐसा मसविदा तैयार करना कि जिसमें ट्रस्ट का अस्तित्व भी न टूटे और सरकार द्वारा संस्था की देखभाल और पोषण की भी गारंटी मिल जाए, जरा टेढ़ी खीर थी। एक दिन एक चाय-पार्टी के दौरान सिन्हा साहब मेरे ( जगदीश चन्द्र माथुर ) पास चुपके से आकर बैठ गये । सन् 1949 की बात है। मैं नया नया शिक्षा सचिव हुआ था, लेकिन सिन्हा साहब की मौजूदगी में मेरी क्या हस्ती ? इसलिए जब मेरे पास बैठे और ज़रा विनीत स्वर में उन्होंने सिन्हा लाइब्रेरी की दास्तान कहनी शुरू की तो मैं सकपका गया। मन में सोचने लगा कि जो सिन्हा साहब मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री और गवर्नर तक से आदेश के स्वर में सिन्हा लाइब्रेरी जैसी उपयोगी संस्था के बारे में बातचीत कर सकते हैं, वह मुझ जैसे कल के छोकरे को क्यों सर चढ़ा रहे हैं? उस वक्त तो नहीं, किन्तु बाद में गौर करने पर दो बातें स्पष्ट हुईं। एक तो यह कि मैं भले ही समझता रहा हूँ कि मेरी लल्लो-चप्पो हो रही है किन्तु वस्तुतः उनका विनीत स्वर उनके व्यक्तित्व के उस साधारणतया अलक्षित और आर्द्र पहलू की आवाज थी, जों पुस्तकों तथा सिन्हा लाइब्रेरी के प्रति उनकी भावुकता के उमड़ने पर ही मुखरित होता था ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) सिन्हा साहब लाइब्रेरी के लिए कैसा मसविदा तैयार करना चाहते थे?
(ख) माथुर साहब क्यों सकपका गये?
(ग) सिन्हा साहब किनके साथ और किसलिए आदेशात्मक स्वर में बात कर सकते थे?
(घ) माथुर साहब जिसे लल्लो-चप्पो समझते थे, वह वास्तव में क्या था?
(ङ) कब और कौन नया-नया शिक्षा सचिव हुए थे?
(च) सिन्हा साहब की कब और क्या उत्कट अभिलाषा थी?

उत्तर
(क) सिन्हा साहब लाइब्रेरी के लिए ऐसा मसविदा तैयार करना चाहते थे कि जिससे ट्रस्ट का अस्तित्व भी न टूटे और सरकार द्वारा संस्था की देखभाल और पोषण की गारंटी भी मिल जाए।
(ख) सिन्हा साहब जब सिन्हा लाइब्रेरी की दास्तान कहनी शुरू की तो वे ( माथुर साहब) सकपका गये, क्योंकि सिन्हा साहब जैसी उनकी हस्ती नहीं थी ।
(ग) सिन्हा साहब मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री और गवर्नर तक से सिन्हा लाइब्रेरी के लिए आदेशात्मक स्वर में बात कर सकते थे।
(घ) माथुर साहब जिसे लल्लो चप्पो समझते थे वह वास्तव में सिन्हा साहब के व्यक्तित्व के उस साधारणतया अलक्षित और आर्द्र पहलू की आवाज थी, जो पुस्तकों और सिन्हा लाइब्रेरी के प्रति उनकी भावुकता के उमड़ने पर ही मुखरित होती थी ।
(ङ) सन् 1949 ई० में जगदीशचन्द्र माथुर नया-नया शिक्षा सचिव हुए थे।
(च) सिन्हा साहब की अंतिम समय में यह उत्कट अभिलाषा थी कि सिन्हा लाइब्रेरी के प्रबन्ध की उपयुक्त व्यवस्था हो जाए।

7. आत्मनिर्भरता प्रगति की आधारशिला है और आत्मविश्वास का मूल है। जो व्यक्ति समाज में अपने सारे कार्य स्वयं करता है, जरूरत पड़ने पर दूसरों की सहायता करता है, वह उन्नति की दौड़ में सबसे आगे रहता है। अपने दैनिक जीवन के सारे कार्य स्वयं ही करना मनुष्य के लिए अत्यावश्यक है। अपने कार्य के लिए दूसरे पर निर्भर रहने वाला व्यक्ति पिछड़ जाता है, उन्नति नहीं कर सकता। सौंपे गए कार्य को पुनीत दायित्व समझकर करना चाहिए, इससे व्यक्ति स्वावलंबी बनता है। स्वावलंबी व्यक्ति सिंह के समान परिश्रमी होता है एवं सामाजिक व मानसिक रूप से स्वस्थ होता है। उसे धन की कमी नहीं रहती। वह अपनी ही भुजाओं से सारी सुख-सुविधाओं को जुटाने में सक्षम होता है। परिणामतः आत्मनिर्भर व्यक्ति उन्नति के शिखर पर पहुँच जाता है ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में )
(क) व्यक्ति की प्रगति की आधारशिला क्या है?
(ख) उन्नति की दौड़ में सबसे आगे कौन रहता है?
(ग) व्यक्ति आत्मनिर्भर कब बनता है?
(घ) सामाजिक व मानसिक रूप से स्वस्थ कौन होता है?’
(ङ)अपनी भुजाओं से सुख सुविधाएँ जुटाने में कौन सक्षम होता है?

उत्तर
(क) व्यक्ति की प्रगति की आधारशिला आत्मनिर्भरता है।
(ख) जो व्यक्ति समाज में अपने सारे कार्य स्वयं करता है, जरूरत पड़ने पर दूसरों की सहायता करता है, वह उन्नति की दौड़ में सबसे आगे रहता है।
(ग) जो व्यक्ति अपनी ही भुजाओं से सारी सुख-सुविधाओं को जुटाने में सक्षम होता है वह व्यक्ति आत्मनिर्भर बनता है।
(घ) सामाजिक व मानसिक रूप से स्वस्थ स्वावलंबी व्यक्ति होता है।
(ङ) अपनी भुजाओं से सुख-सुविधाएँ जुटाने में स्वावलम्बी सक्षम होता है।

8. कोई भी शासक अपना प्रभुत्व जमाने के लिए जनता में एकता नहीं चाहता, इसलिए अंग्रेजों ने भारत में राज करने के लिए सर्वप्रथम यहाँ की एकता खंडित की । सनातन मूल्यों, आदर्शों और प्रतिमानों को नष्ट-भ्रष्ट किया। भारत की वैज्ञानिक संस्कृति के प्रति सुनियोजित तरीके से अनास्था के भाव उत्पन्न किए। भोली-भाली जनता को बहकाया गया। उन्होंने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाई जिसके कारण वह लगभग दो सौ वर्षों तक भारत पर शासन करते रहे। साथ ही, भारत में धर्मों व जातियों में दंगे भड़काते रहे। वह विभिन्न धर्मों के बीच वैमनस्य की दीवार खड़ी करते रहे। अंततः वह भारत के स्वतंत्र होने पर भी अखंडता समाप्त करके ही गए। भारत का विभाजन अंग्रेजों की नीति का एक हिस्सा है। उन्होंने आजादी के पूर्व जो आग लगाई थी, प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से उसमें हम आज भी झुलस रहे हैं। परिणामतः हमें आज जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर मिल जुलकर रहना चाहिए।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) अंग्रेजों ने भारत की एकता खंडित क्यों की?
(ख) अंग्रेजों ने हम पर किस प्रकार शासन किया?
(ग) अंग्रेजों ने भारतवर्ष पर लगभग कितने दिनों तक शासन किया?
(घ) अंग्रेजों ने भारतवर्ष में कौन सी नीति अपनाई?
(ङ) इस विषम परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए?

उत्तर
(क) अंग्रेजों ने भारत में राज करने के लिए यहाँ की एकता खंडित की ।
(ख) सनातन मूल्यों, आदर्शों और प्रतिमानों को नष्ट-भ्रष्ट किया। भारत की वैज्ञानिक संस्कृति के प्रति सुनियोजित तरीके से अनास्था के भाव उत्पन्न किए। भोली-भाली जनता को बहकाया गया।
(ग) अंग्रेजों ने भारतवर्ष पर लगभग 200 वर्षों तक शासन किया।
(घ) अंग्रेजों ने भारतवर्ष में फूट डालो और राज्य करो की नीति अपनाई ।
(ङ) हमें आज जाति, धर्म और क्षेत्रवाद से ऊपर उठकर मिल-जुलकर रहना चाहिए।

9. विश्वविख्यात मैक्स मूलर का जन्म जर्मनी के डेसाउ नामक नगर में 6 दिसंबर, 1823 ई० में हुआ था। जब वे चार वर्ष के हुए, उनके पिता विल्हेम मूलर की मृत्यु हो गई। पिता की मृत्यु के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति बडी दयनीय हो गई। बावजूद इसके उनकी शिक्षा-दीक्षा बाधित नहीं हुई । बचपन में ही वे संगीत के अतिरिक्त ग्रीक और लैटिन भाषा में निपुण हो गए। लैटिन भाषा में कविताएँ भी लिखने लगे। 18 वर्ष की उम्र में उन्होंने संस्कृत का अध्ययन प्रारंभ
किया। स्वामी विवेकानंद ने उन्हें ‘वेदांतियों का भी वेदांती’ कहा है। भारत के प्रति उनका अनुराग जग जाहिर है ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) मैक्समूलर का जन्म कहाँ और कब हुआ था?
(ख) वे कितने वर्ष के थे? जब उनके पिता की मृत्यु हुई थी?
(ग) पिता के मरने के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति कैसी हो गई?
(घ) उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति का उनकी शिक्षा-दीक्षा पर क्या प्रभाव पड़ा?
(ङ) स्वामी विवेकानंद ने उन्हें क्या कहा?

उत्तर
(क) मैक्स मूलर का जन्म जर्मनी के डेसाउ नामक नगर में 6 दिसंबर 1823 ई० में हुआ था।
(ख) वे जब चार वर्ष हुए तो उनके पिता की मृत्यु हुई थी।
(ग) पिता के मरने के बाद उनके घर की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई।
(घ) उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति का उनकी शिक्षा-दीक्षा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।
(ङ) स्वामी विवेकानन्द ने उन्हें ‘वेदांतियों का भी वेदांती’ कहा।

10. मनुष्य को सुख पहुँचाने वाली वस्तुओं की कमी है। इसलिए अधिक मशीन बैठाकर उत्पादन में वृद्धि करने की जरूरत है। धन में वृद्धि करने और बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाने की जरूरत है। बड़े-बड़े नेता के इस विचार से असहमति जताते हुए एक बूढ़ा ने कहा-बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो, आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, काम करने की बात सोचो। क्योंकि प्रेम ही बड़ी चीज है और यह हमारे भीतर है। ‘स्व’ के नियंत्रण से प्रेम पुष्ट होता है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) मनुष्य को सुख देने वाली वस्तुओं के अभाव को दूर करने के लिए नेताओं ने कौन-कौन से सुझाव दिए?
(ख) इस पर बूढ़ा व्यक्ति ने क्या कहा?
(ग) बूढ़ा के अनुसार सबसे बड़ी चीज क्या है?
(घ) प्रेम का वास कहाँ है?
(ङ) प्रेम कैसे पुष्ट होता है?

उत्तर :
(क) मनुष्य को सुख देने वाली वस्तुओं के अभाव को दूर करने के लिए नेताओं ने अधिक मशीन बैठाकर उत्पादन में वृद्धि, धन में वृद्धि करने तथा बाह्य उपकरणों की ताकत बढ़ाने का सुझाव दिया।
(ख) इस पर बूढ़ा व्यक्ति ने कहा- बाहर नहीं, भीतर की ओर देखो। हिंसा को मन से दूर करो, मिथ्या को हटाओ, क्रोध और द्वेष को दूर करो, लोक के लिए कष्ट सहो आराम की बात मत सोचो, प्रेम की बात सोचो, काम करने की बात सोचो।
(ग) बूढ़ा के अनुसार सबसे बड़ी चीज प्रेम है।
(घ) प्रेम का वास हमारे भीतर है।
(ङ) प्रेम ‘स्व’ के नियंत्रण से पुष्ट होता है।

11. 21 अक्टूबर 1833 ई० को स्वीडन के स्टॉकहोम में पिता इमानुएल एवं माता कैरोलीन ऐनड्रिटा आलसिल के आंगन में अल्फ्रेड नोबेल का जन्म हुआ। वह शैशवावस्था से ही बहुत कमजोर थे। सर्दी-जुकाम से, बुखार से हमेशा पीड़ित रहते थे। मन से भी वह भावुक थे। इन सबके बीच कुछ कर गुजरने का जज्बा उनमें भरा था। उनके इसी जज़्बे ने विश्व को डायनामाइट दिया। एक बार टपक रही नाइट्रोग्लिसरीन पर उनकी नजर पड़ी जो टपकने के साथ रेत पर जमती जा रही थी। उन्होंने उसी के आधार पर डायनामाइट का आविष्कार कर दिया। उन्होंने अपने इस आविष्कार को पेटेंट करवाया। कारखाना खोलने के लिए अनेक देशों को पत्र लिखे परंतु खतरनाक विस्फोटक होने के कारण किसी ने सहायता नहीं की। अंतत: फ्रांस के तत्कालीन सम्राट नेपोलियन तृतीय ने स्वीकृति दे दी। कालांतर में कई देशों में इसकी फैक्ट्रियाँ खुल गयीं। इससे उनके पास अकूत संपति अर्जित हो गयी। अपनी मृत्यु से पूर्व इन्होंने अपनी अपार धनराशि का बड़ा भाग 25 लाख पौंड की वसीयत पुरस्कारों के लिए निर्धारित कर दी। उनकी मृत्यु के पश्चात् 10 दिसंबर 1901 को उनकी बरसी पर पहली बार नोबेल फाउंडेशन ने पाँच पुरस्कार दिए। ये पुरस्कार – भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, साहित्य व शांति के क्षेत्र में विशिष्ट कार्य करने वालों को दिये गए।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) अल्फ्रेड नोबेल का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
(ख) अल्फ्रेड नोबेल ने डायनामाइट का आविष्कार कैसे किया?
(ग) अल्फ्रेड को कारखाना लगाने की अनुमति क्यों नहीं मिल पा रही थी?
(घ) सर्वप्रथम डायनामाइट का कारखाना किस देश में खुला ?
(ङ) नोबेल पुरस्कार की शुरुआत कब हुई? किन-किन क्षेत्रों में यह पुरस्कार दिए जाते हैं?

उत्तर
(क) अल्फ्रेड नोबेल का जन्म 21 अक्टूबर 1833 ई० को स्वीडन के स्टॉक होम में हुआ।
(ख) नाइट्रोग्लिसरीन जो टपकने के साथ रेत पर जमती जा रही थी उन्होंने उसी के आधार पर डायनामाइट का आविष्कार किया।
(ग) खतरनाक विस्फोटक होने के कारण अल्फ्रेड को कारखाने लगाने की अनुमति नहीं मिल पा रही थी।
(घ) सर्वप्रथम डायनामाइट का कारखाना फ्रांस देश में खुला।
(ङ) नोबेल पुरस्कार की शुरूआत 1901 ई० में हुई। भौतिकी, रसायन, चिकित्सा, साहित्य व शांति क्षेत्रों में यह पुरस्कार दिए जाते हैं।

12. निःस्वार्थ भाव से पीड़ित मानवता की सेवा सबसे बड़ा धर्म है, उपकार है । व्यक्ति परोपकार कई प्रकार से कर सकता है। हम आर्थिक रूप से या उसके माध्यम से दूसरों का हित कर सकते हैं। भूखे को रोटी खिला सकते हैं। नंगे का तन ढक सकते हैं। धर्मशालाएँ बनवा सकते हैं। यदि हम धन से वंचित हैं, तो तन मन से भी दूसरों की भलाई कर सकते हैं। निरक्षरों को शिक्षा का दान दे सकते हैं, उन्हें साक्षर बना सकते हैं। यदि देखा जाय तो यही सच्चा दान है। इससे हम अपने और परिवार के लिए कुछ सुख-शांति प्राप्त कर सकते हैं। इसके सिवा शारीरिक शक्ति द्वारा भी परोपकार किया जा सकता है। भूले-भटके को राह दिखा सकते हैं। प्यासे को पानी पिला सकते हैं। अबलाओं की रक्षा कर सकते हैं।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) परोपकार किसे कहते हैं?
(ख) परोपकार किस प्रकार किया जा सकता है?
(ग) सच्चा द्वान क्या है?
(घ) सुख-शांति प्राप्त करने का मुख्य साधन क्या है?
(ङ) बिना आर्थिक सहायता के परोपकार किस प्रकार किया जा सकता है?

उत्तर
(क) निःस्वार्थ भाव से पीड़ित मानवता की सेवा करना ही परोपकार कहलाता है।
(ख) परोपकार आर्थिक रूप से या उसके माध्यम से दूसरों का हित कर सकते हैं।
(ग) भूखे को रोटी खिलाना, नंगे का तन ढकना, धर्मशालाएँ बनाना, दूसरों की भलाई करना तथा निरक्षरों को साक्षर बनाना ही सच्चा दान है।
(घ) भूले-भटके को राह दिखाना, प्यासे को पानी पिलाना, अबलाओं को रक्षा करना आदि सुख शांति प्राप्त करने का मुख्य साधन है।
(ङ) तन-मन से दूसरों की भलाई करके ।

13. मानव की दो मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं। एक तो यह कि लोग हमारे गुणों की कद्र करें, हमें दाद दें और हमारा आदर करें तथा दूसरे वे हमसे प्रेम करें, हमारा अभाव महसूस करें और उनके जीवन में हम कुछ महत्व रखते हैं- ऐसा अनुभव करें। ये दोनों प्रवृत्तियाँ मनुष्य को आगे बढ़ने तथा कुछ-न-कुछ करने के लिए प्रेरित करती रहती हैं। आपके जरा से भी कार्य की यदि किसी ने सच्चे दिल से प्रशंसा की, तो आपका दिल कैसे खिल उठता है। कोई आपकी सलाह माँगने आता है, तो आपका मन कैसे फूल जाता है। ऊपर से कोई बड़ा आदमी कितना भी आत्मविश्वासी और आत्मतुष्ट क्यों न दिखाई दे, भीतर से वह हमारी आपकी तरह प्रशंसा का, प्रोत्साहन का, स्नेह का भूखा है। यदि आप उसे प्रामाणिकतापूर्वक ले सकें तो आप फौरन उसके हृदय के निकट पहुँच जाएँगे। दूसरों की भावनाओं को ठीक-ठीक समझना, उनकी कद्र करना, उनके साथ सच्चाई और स्नेह का व्यवहार करना आदि व्यवहार कुशलता है। इसी से
सामाजिक जीवन में लोकप्रियता के दरवाजे खोलने की कुंजी हाथ लगती है। इससे हमारी अपनी सुख-शांति बढ़ती है, सो अलग।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) मानव की कौन-कौन सी दो मूल प्रवृत्तियाँ होती हैं?
(ख) व्यक्ति कब और क्यों प्रसन्न हो उठता है?
(ग) हर बड़ा आदमी भी अपने प्रति किस तरह का व्यवहार चाहता है?
(घ) व्यवहार कुशलता के अंतर्गत कौन से गुण आते हैं?
(ङ) उपर्युक्त गद्यांश का क्या शीर्षक हो सकता है?

उत्तर
(क) मानव की दो मूल प्रवृतियाँ हैं – एक तो यह कि लोग हमारे गुणों की कद्र करं, हमें दाद दें और हमारा आदर करें। दूसरा कि लोग हमसे प्रेम करें, हमारा अभाव महसूस करें और लोगों के जीवन में हम कुछ महत्त्व रखते हैं ऐसा अनुभव करें।
(ख) जब सच्चे दिल से किसी के काम की प्रशंसा की जाती है या किसी की सलाह ली जाती है तब व्यक्ति प्रसन्न हो जाता है।
(ग) हर बड़ा आदमी अपनी प्रशंसा, प्रोत्साहन तथा स्नेह चाहता है।
(घ) व्यवहारकुशलता के अन्तर्गत दूसरों की भावनाओं को ठीक-ठीक समझना, उनकी कद्र करना, उनके साथ सच्चाई और स्नेह का व्यवहार करना आदि गुण आते हैं।
(ङ) शीर्षक : ‘व्यवहारकुशलता’।

14. वन पृथ्वी को ईश्वर का वरदान है। इसका मानव जीवन में अत्यधिक महत्त्व है। मानव-जीवन के लिए आवश्यक भोजन, वस्त्र और आवास की पूर्ति अधिकांशतः वन और वृक्षों के माध्यम से ही होती है। कपास जैसे पौधों के रेशे वस्त्र बनाने के काम आते हैं। इमारत बनाने में पेड़ों की लकड़ी उपयोग में आती है। इनके अतिरिक्त अनाज, दवाइयाँ, शहद, रबर, रंग-रोगन, गोंद आदि भी वनों से मिलते हैं। कागज उद्योग तो वनों पर ही केंद्रित है। ईंधन के रूप में इस्तेमाल की जाने वाली लकड़ी और कोयला भी हमें वनों से ही मिलता है। प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में भी इनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। ये वायु में विद्यमान कार्बन डाइऑक्साइड को
ग्रहण कर प्राणियों के लिए आवश्यक ऑक्सीजन छोड़ते हैं। वर्षा कराने में भी वनों का योगदान उल्लेखनीय हैं। ये वन्य प्राणियों को संरक्षण देते हैं और प्राकृतिक सौंदर्य में वृद्धि करते हैं।

प्रकृति के लिए आवश्यक सभी उपयोगी तत्वों को बनाए रखना प्राकृतिक संतुलन कहलाता है। हम जानते हैं कि पेड़-पौधे हमारे लिए बहुत जरूरी हैं। ये वर्षा में भी सहायक हैं। इनके अतिरिक्त ये प्रकृति में विद्यमान कार्बन डाइऑक्साइड को ग्रहण कर प्राणियों के लिए आवश्यक ऑक्सीजन विसर्जित करते हैं, परंतु स्वार्थवश मनुष्य ने वृक्षों को अधिक मात्रा में काटना शुरू कर दिया है जिससे प्राकृतिक संतुलन नष्ट होता जा रहा है। हम पुराने पेड़-पौधों की रक्षा कर तथा नए पेड़-पौधे लगाकर प्राकृतिक संतुलन को कायम कर सकते हैं।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) वन के विषय में लेखक के क्या विचार हैं?
(ख) किस पौधे के रेशे वस्त्र बनाने के काम आते हैं?
(ग) वनों से क्या-क्या प्राप्त होता है?
(घ) प्राकृतिक संतुलन किसे कहते हैं?
(ङ) वृक्ष प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने में किस प्रकार मदद करते हैं?

उत्तर
(क) वन पृथ्वी को ईश्वर का वरदान है। इसका मानक जीवन में अत्यधिक महत्व है।
(ख) कपास जैसे पौधों के रेशे वस्त्र बनाने के काम आत हैं।
(ग) वनों से कपास, लकड़ी, अनाज, फल, दवाइयाँ, शहद, रबर, रंग-रोगन, गोंद, ईंधन, ईंधन की लकड़ी, कोयला आदि प्राप्त होते हैं।
(घ) प्रकृति के लिए आवश्यक सभी उपयोगी तत्वों का बनाए रखना प्राकृतिक संतुलन कहलाता है।
(ङ) वृक्ष वर्षा कराने में सहायक होते हैं तथा प्रकृति से कार्बन डायक्साइड ग्रहण कर ऑक्सीजन उपलब्ध करात हैं, और वन्य प्राणियों का संरक्षण करते हुए प्राकृतिक सौन्दर्य बढ़ाकर प्राकृतिक संतुलन बनाते हैं।

15. साहित्य का सृजन एक व्यक्ति करता है और उसके माध्यम से वह अपनी निजी अनुभूतियों और मान्यताओं की अभिव्यक्ति करता है। किन्तु वह व्यक्ति किसी-न-किसी समाज में रहता है. उस समाज की मर्यादाओं में पलता है, और उसके गुण-अवगुणों से प्रभावित होता रहता है। वह अपने समाज के प्रभावों से कभी अछूता नहीं रह सकता। जैसे वह समाज की उपज है, वैसी ही इसकी कृति भी समाज – सापेक्ष होती है। यही कारण है कि एक युग में लिखने वाले दो या तीन साहित्यकारों में समान विचार-धारा मिलती है। रीतिकाल में जो उदासीनता और विलासित छायी हुई थी, वह हिन्दी के सब कवियों में दृष्टिगोचर होती है । भारतेन्दु युग के दौरान जो देश में नयी जागृति आ गई उसका प्रतिबिम्ब हिन्दी के तत्कालीन सभी कवियों की रचनाओं में पाया जाता है। इंग्लैंड में रेस्टोरेशन युग ( 17वीं सदी उत्तरार्द्ध) का भ्रष्टाचार जीवन उस युग के नाटकों में विकसित हुआ ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) साहित्यकार अपनी अनुभूतियों और मान्यताओं की अभिव्यक्ति किस माध्यम से करता है?
(ख) कृतिकार ही कृति पर समाज की गतिविधियों का कैसा प्रभाव पड़ता है?
(ग) एक ही युग में लिखने वाले दो या तीन साहित्यकारों में समान विचारधारा क्यों मिलती है?
(घ) रीतिकाल के कवियों में कौन-से भाव छाये हुए थे?
(ङ) रेस्टोरेशन युग के नाटकों में किस प्रकार का जीवन विकसित हुआ है ?

उत्तर
(क) साहित्यकार अपनी अनुभूतियों और मान्यताओं की अभिव्यक्ति साहित्य-सृजन के माध्यम से करता है।
(ख) कृतिकार की कृति पर समाज की मर्यादाओं एवं उसके गुण-अवगुणों का प्रभाव पड़ता है। कृति समाज सापेक्ष होती है।
(ग) साहित्यकार की रचना समाज से प्रभावित होती है। जैसा समाज होता है या जिस काल में समाज का जैसा वातावरण होता है रचना समाज के अनुसार ही होती है। यही कारण है कि एक युग में लिखने वाले दो या तीन साहित्यकारों में समान विचारधारा मिलती है।
(घ) रीतिकाल के कवियों में उदासीनता और विलासिता के भाव छाये हुए थे।
(ङ) रेस्टोरेशन युग के नाटकों में भ्रष्टाचार पूर्ण जीवन विकसित हुआ है।

16. कविता के मर्मज्ञ और रसिक स्वयं कवि से अधिक महान होते हैं। संगीत के पागल (सुनने वाले) ही स्वयं संगीतकार से अधिक संगीत का रसास्वादन करते हैं। यहाँ पूज्य नहीं, पुजारी ही श्रेष्ठ है। यहाँ सम्मान पाने वाले नहीं, सम्मान देने वाले महान् हैं। स्वयं पुष्प में कुछ नहीं हैं, पुष्प का सौंदर्य उसे देखने वाले की दृष्टि में है। दुनिया में कुछ नहीं है; जो कुछ भी है हमारी चाह में, हमारी दृष्टि में है। यह अद्भुत भारतीय व्याख्या अजीब-सी लग सकती है, पर हमारे पूर्वज सदा इसी पथ के पथिक रहे हैं। उत्तम गुरु में जाति – भावना भी नहीं रहती । कितने ही मुसलमान
पहलवानों के हिंदू चेले हैं और हिंदू संगीतकारों के मुसलमान शिष्य रहे हैं। यहाँ परख गुण की, साधना की और प्रतिभा की होती है भक्ति और श्रद्धा की ही कीमत है, न कि जाति-संप्रदाय, आचार-विचार या धर्म की। मुझे पढ़ाया-लिखाया था- एक विद्वान मुसलमान ने ही और आज मैं जिस स्थान पर पहुँचा है, जो सम्मान और प्रतिष्ठा मुझे मिली है, उस सबका श्रेय मेरे उन्हीं गुरु का है। बचपन में मेरे मुस्लिम गुरु ने मुझे जो रास्ता दिखाया, मुझे ज्ञान देकर उस रास्ते पर आगे बढ़ने की प्रेरणा दी; आज उसी के परिणामस्वरूप में अपनी मंजिल तक पहुँचने में कामयाब हो सका

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) कवि से अधिक महान कौन होता है?
(ख) संगीत का रसास्वादन कौन अधिक करता है?
(ग) शिष्य का चयन गुरु किस आधार पर करता है?
(घ) लेखक ने अपने बारे में क्या कहा है?
(ङ) सच्चे शिष्य की क्या परख होती है?

उत्तर
(क) कवि से अधिक महान कविता के मर्मज्ञ और रसिक होते हैं।
(ख) संगीत के श्रोता संगीत का रसास्वादन अधिक करते हैं।
(ग) शिष्य का चयन गुरु उसके गुण, प्रतिभा उसकी भक्ति और श्रद्धा के आधार पर करता है।
(घ) लेखक ने अपनी सफलता का श्रेय अपने गुरु को दिया है। उन्होंने कहा है कि कामयाबी, प्रतिष्ठा, सफलता सब गुरु- प्रेरणा का परिणाम है।
(ङ) सच्चे शिष्य की श्रद्धा एवं भक्ति की परख होती है। शिष्य के गुण, साधना और प्रतिभा की परख होती है।

17. इस संसार को कर्मक्षेत्र कहा गया है। सारी सृष्टि कार्यरत है। छोटे से छोटा प्राणी भी कर्म का शाश्वत संदेश दे रहा है। प्रकृति के साम्राज्य में कहीं भी अकर्मण्यता के दर्शन नहीं हो रहे हैं। सूर्य, चंद्र, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्रादि निरंतर गतिशील हैं। नियमानुकूल सूर्योदय होता है और सूर्यास्त तक किरणें प्रकाश बिखेरती रहती है। रात्रिकालीन आकाश में तारावली तथा नक्षत्रावली का सौंदर्य विहँस उठता है। क्रमशः बढ़ती घटती चंद्रकला के दर्शन होते हैं। इसी तरह विभिन्न ऋतुओं का चक्र अपनी धुरी पर चलता रहता है। नदियाँ अविरल गति से बहती रहती हैं। पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सबके जीवन में सक्रियता है। वस्तुतः कर्म से परे जीवन का कोई उद्देश्य नहीं है। मनुष्य का जन्म पाकर हाथ-पैर तो हिलाने ही होंगे। हमारे प्राचीन ऋषियों ने
शतायु होने की किंतु कर्म करते हुए जीने की इच्छा प्रकट की थी । इतिहास साक्षी है कि कितने ही भारतीय युवकों ने कर्मशक्ति के बल पर चंद्रगुप्त की भाँति शक्तिशाली साम्राज्यों की स्थापना की। आधुनिक युग में भारत जैसे विशाल जनतंत्र की स्थापना करने वाले गाँधी, नेहरू, पटेल आदि कर्मपथ पर दृढ़ता के ही प्रतिरूप थे। दूसरी ओर इतिहास उन सम्राटों को भी रेखांकित करता है जिनकी अकर्मण्यता के कारण महान साम्राज्य नष्ट हो गए। वेद, उपनिषद, कुरान, बाइबिल आदि सारे धर्मग्रंथ कर्मठ मनीषियों की ही उपलब्धियाँ हैं। आधुनिक ज्ञान-विज्ञान की गौरव गरिमा उन वैज्ञानिकों की देन है जिन्होंने साधना की बलि वेदी पर अपनी हार साँस समर्पित कर दी। विज्ञान कर्म का साक्षात् प्रतीक है। सुख-समृद्धि के शिखर पर आसीन प्रत्येक व्यक्ति अथवा जाति कर्म-शक्ति का परिचय देती है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) कर्म का संदेश निरंतर हमें किनसे मिल रहा है ?
(ख) ऋषियों ने सौ वर्ष का कैसा जीवन चाहा था ?
(ग) कर्म के बल पर किन साम्राज्यों की स्थापना हुई ?
(घ) अकर्मण्यता के क्या परिणाम होते हैं ?
(ङ) विज्ञान कर्म का प्रतीक कैसे है ?

उत्तर
(क) कर्म का संदेश हमें सारी सृष्टि से मिल रहा है। संपूर्ण सृष्टि कर्मरत है । छोटे-से-छोटे प्राणी भी कर्म का संदेश दे रहे हैं।
(ख) ऋषियों ने सौ वर्ष तक कर्मरत जीवन चाहा था । उनकी कामना थी कि कर्म करते हुए शतायु रहें ।
(ग) कर्म के बल पर शक्तिशाली साम्राज्यों की स्थापना हुई ।
(घ) अकर्मण्यता विकास में बाधक होता है। ऐसा देखा गया है कि अकर्मण्यता के कारण महान साम्राज्य भी नष्ट हो गए।
(ङ) वैज्ञानिक आविष्कार कर्म साधना का प्रतिफल है। अतः विज्ञान कर्म का प्रतीक है।

18. आत्मनिर्भरता का अर्थ है-अपने ऊपर निर्भर रहना, जो व्यक्ति दूसरे के मुँह को नहीं ताकते वे ही आत्मनिर्भर होते हैं। वस्तुतः आत्मविश्वास के बल पर कार्य करते रहना आत्मनिर्भरता है। आत्मनिर्भरता का अर्थ है – समाज, निज तथा राष्ट्र की आवश्यकताओं की पूर्ति करना । व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र में आत्मविश्वास की भावना, आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। स्वावलंबन जीवन की सफलता पहली सीढ़ी है। सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति को स्वावलंबी अवश्य होना चाहिए। स्वावलंबन व्यक्ति, समाज राष्ट्र के जीवन में सर्वांगीण सफलता प्राप्ति का महामंत्र है। स्वावलंबन जीवन का अमूल्य आभूषण है, वीरों तथा कर्मयोगियों का इष्टदेव है। सर्वांगीण उन्नति का आधार है। जब व्यक्ति स्वावलंबी होगा, उसमें आत्म-निर्भरता होगी, तो ऐसा कोई कार्य नहीं जिसे वह कर न सके। स्वावलंबी मनुष्य के सामने कोई भी कार्य आ जाए, तो वह अपने दृढ़ विश्वास से, अपने आत्मबल से उसे अवश्य ही संपूर्ण कर लेगा। स्वावलंबी मनुष्य जीवन में कभी भी असफलता का मुँह नहीं देखता । वह जीवन के हर क्षेत्र में निरंतर कामयाब होता जाता है। सफलता तो स्वावलंबी मनुष्य की दासी बनकर रहती है। जिस व्यक्ति का स्वयं अपने आप पर ही विश्वास नहीं वह भला क्या कर पाएगा? परंतु इसके विपरीत जिस व्यक्ति में
आत्मनिर्भरता होगी, वह कभी किसी के सामने नहीं झुकेगा। वह जो करेगा सोच-समझकर धैर्य से करेगा। मनुष्य में सबसे बड़ी कमी स्वावलंबन का न होना है। सबसे बड़ा गुण भी मनुष्य की आत्मनिर्भरता ही है। आत्मनिर्भरता मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है। स्वावलंबी मनुष्य का अपने आप पर विश्वास होता है जिससे वह किसी के भी कहने में नहीं आ सकता। यदि हमें कोई काम सुधारना है तो हमें किसी के अधीन नहीं रहना चाहिए बल्कि उसे स्वयं करना चाहिए । एकलव्य स्वयं के प्रयास से धनुर्विद्या में प्रवीण बना। निपट दरिद्र विद्यार्थी लाल बहादुर शास्त्री भारत के प्रधानमंत्री बने । साधारण से परिवार में जन्मे जैल सिंह स्वावलंबन के सहारे ही भारत के राष्ट्रपति बने। जिस प्रकार अलंकार काव्य की शोभा बढ़ाते हैं, सूक्ति भाषा को चमत्कृत करती है, गहने नारी की सौंदर्य बढ़ाते हैं, उसी प्रकार आत्मनिर्भरता मानव में अनेक गुणों की प्रतिष्ठा करती है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) ‘आत्मनिर्भर व्यक्ति’ से आप क्या समझते हैं?
(ख) ‘सफलता तो स्वावलंबी मनुष्य की दासी बनकर रहती है। कैसे?
(ग) एकलव्य और लालवहादुर शास्त्री के उदाहरण लेखक ने किस संदर्भ में दिए हैं?
(घ) ‘आत्मनिर्भरता मनुष्य को श्रेष्ठ किस प्रकार बनाती है?
(ङ) इस गद्यांश का उपयुक्त शीर्षक दीजिए।

उत्तर
(क) आत्मविश्वास के बल पर कार्य करने वाले व्यक्ति आत्मनिर्भर होते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने ऊपर निर्भर रहते हैं, दूसरे के मुँह को नहीं ताकते ।
(ख) स्वावलम्बी मनुष्य प्रत्येक कार्य को आत्मविश्वास के साथ, दृढ़तापूर्वक करता है। आत्मनिर्भर रहने से व्यक्ति में संघर्षशीलता का विकास हो जाता है जिससे किसी भी कार्य को कुशलतापूर्वक करने की क्षमता आ जाती है। दृढ़ विश्वास एवं आत्मबल से कार्य करने के कारण सफलता ऐसे मनुष्य की दासी बनकर रहती है।
(ग) जो व्यक्ति दूसरे का आश्रय नहीं लेता है बल्कि किसी कार्य को स्वयं करता है या आगे चलकर बढ़ने का स्वयं प्रयास करता है वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफल होता है। इसी संदर्भ में लेखक ने एकलव्य और लाल बहादुर शास्त्री का उदाहरण दिए हैं।
(घ) आत्मनिर्भर व्यक्ति को अपने आप पर विश्वास होता है जिससे वह किसी भी कार्य को पूर्ण करने की दक्षता प्राप्त कर लेता है। वह किसी के अधीन रहकर कोई सुधार या प्रयास नहीं करता बल्कि स्वयं संघर्षरत रहकर कार्य कुशलता की प्राप्ति करता है। वह किसी भी क्षेत्र में श्रेष्ठतम स्थान को प्राप्त करने का सामर्थ्य रखता है। इस प्रकार आत्मनिर्भरता मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है।
(ङ) शीर्षक : ‘आत्मनिर्भरता’ ।

19. राष्ट्रवाद का शाब्दिक अर्थ होता है “राष्ट्रीय चेतना का उदय”। ऐसी राष्ट्रीय चेतना का उदय जिसमें राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक एकीकरण का आभास हो । 19वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध तक भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था। उस समय भारत को एकता के सूत्र में बाँधने वाले तत्वों का अभाव था। समान न्याय व्यवस्था का अभाव था। राष्ट्रीय एकता में कमी का अर्थ है उस अनुभूति का अभाव जो भारत में रहने वाले सभी लोगों को समान लक्ष्य एवं समान सरोकार से जोड़े। 19वीं शताब्दी के उतरार्द्ध में कई ऐसे तत्व उभरे जिससे ये कमी दूर होती गयी एवं भारत एक सम्पूर्ण संगठित राष्ट्र का स्वरूप ग्रहण करने लगा। यही राष्ट्रवाद है एवं इसी राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता संग्राम है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में):
(क) राष्ट्रवाद का शाब्दिक अर्थ क्या होता है ?
(ख) किस शताब्दी के पूर्वाद्ध तक भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था ?.
(ग) भारत में एकता के सूत्र में बाँधने वाले किन तत्वों का अभाव था ?
(घ) भारत सम्पूर्ण संगठित राष्ट्र का स्वरूप किस शताब्दी में ग्रहण करने लगा ?
(ङ) एक उचित शीर्षक दें ।

उत्तर
(क) राष्ट्रवाद का शाब्दिक अर्थ ‘राष्ट्रीय चेतना का उदय’ होता है।
(ख) 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक भारत छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त था ।
(ग) भारत को एकता के सूत्र में बाँधने वाले समान न्याय व्यवस्था तथा राष्ट्रीय एकता का अभाव था।
(घ) भारत सम्पूर्ण संगठित स्वरूप 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ग्रहण करने लगा।
(ङ) शीर्षक: ‘राष्ट्रवाद’ ।

20. वन्य प्राणियों के ह्रास का एक प्रमुख कारण इनका शिकार और इन्हें विभिन्न उद्देश्यों के लिए फंसाना है। इनका आर्थिक महत्व होने के कारण इनका दोहन होता है। यद्यपि फंसाना, शिकार करना, व्यापार करना कानूनी रूप से वर्जित है, किन्तु स्थानीय, राज्य एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इनकी काला बाजारी एवं तस्करी हो रही है। जिसके कारण वन्य जीव का तेजी से दोहन हो रहा है। इस पर सरकार द्वारा सख्त कानूनी कार्यवाही भी की जा रही है। स्वयंसेवी संस्थाओं को भी आगे लाया जा रहा है और स्थानीय जनता में जागरूकता लाने की भी जरूरत है। बिहार के दरभंगा जिला का कुशेश्वर स्थान अभयारण्य एक अच्छा उदाहरण है, जहाँ प्रवासी
पक्षियों के शिकार एवं व्यापार पर रोकथाम के लिए स्थानीय नागरिकों के सहयोग से जन-जागरण के कार्यक्रम चलाए गए हैं। जिला प्रशासन के सहयोग से स्थानीय युनेस्को क्लब द्वारा पक्षियों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया गया है। जिला प्रशासन द्वारा इसके लिए यहाँ एक वाच टावर का निर्माण कराया गया है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें :
(क) उपर्युक्त गद्यांश का शीर्षक दें।
(ख) वन्य प्राणियों के ह्रास का प्रमुख कारण क्या है ?
(ग) वन्य प्राणियों के दोहन होने के क्या कारण हैं ?
(घ) बिहार में अभयारण्य कहाँ है ?
(ङ) पक्षियों के शिकार पर किसके द्वारा प्रतिबंध लगाया गया है ?
(च) जिला प्रशासन द्वारा किस चीज का निर्माण कराया गया है ?

उत्तर
(क) शीर्षक : ‘वन्य प्राणी संरक्षण’।
(ख) वन्य प्राणियों के ह्रास का प्रमुख कारण इनका शिकार करना और इन्हें विभिन्न उद्देश्यों के लिए फँसाना है।
(ग) आर्थिक महत्त्व होने के कारण वन्य प्राणियों का दोहन होता है।
(घ) बिहार में अभ्यारण्य दरभंगा जिला के कुशेश्वर स्थान पर है।
(ङ) पक्षियों के शिकार पर जिला प्रशासन के सहयोग से स्थानीय यूनेस्को क्लब द्वारा प्रतिबंध लगाया गया है।
(च) जिला प्रशासन द्वारा एक वाच टॉवर का निर्माण कराया गया है।

21. यूरोप में 1942 ई० के बाद जर्मनी और सोवियत संघ के बीच घमासान लड़ाई हुई। इसमें जर्मनी बुरी तरह पराजित हुआ। जर्मनी के इस पराजय में द्वितीय मोर्चा की महत्वपूर्ण भूमिका रही। दूसरे मोर्चे में अमेरिका, इंग्लैण्ड, रूस और फ्रांस आते थे। ये सब मिलकर जर्मनी को पराजित करने का प्रयास किये और 6 जून, 1944 को जर्मन सेना परास्त हो गयी। इसके पहले ही इटली पूर्णत: पराजित हो मित्र राष्ट्रों से संधि कर चुका था। अंततः 7 मई, 1947 ई० को जर्मनी ने आत्मसमर्पण कर दिया।
“मित्र राष्ट्रों ने जुलाई 1945 ई० में जापान पर भीषण आक्रमण किया। 6 अगस्त, 1945 को अमेरिका ने युद्ध के दौरान अत्यधिक विकसित हथियार एटम बम जापान के हिरोशिमा नामक शहर पर गिराया। फलत: हिरोशिमा का नामोनिशान मिट गया। दूसरा एटम बम 9 अगस्त, 1945 को नागासाकी शहर पर गिराया गया और नागासाकी भी नेस्तनाबूद हो गया। जापान के सामने आत्मसमर्पण के सिवा कोई विकल्प नहीं था और जापान ने 2 सितम्बर, 1945 को आत्मसमर्पण कर दिया, इसके साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो गया।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में )
(क) यूरोप में 1942 ई० के बाद क्या हुआ ?
(ख) दूसरे मोर्चे में कौन-कौन देश आते थे एवं जर्मन सेना कब और किससे परास्त हुई ?
(ग) अमेरिका ने पहला एटम बम कब और कहाँ गिराया ? उसका क्या परिणाम हुआ ?
(घ) 9 अगस्त, 1945 को क्या हुआ एवं द्वितीय विश्वयुद्ध कैसे समाप्त हो गया ?
(ङ) 2 सितम्बर, 1945 को किस देश ने आत्म-समर्पण किया ?

उत्तर
(क) यूरोप में 1942 ई० के बाद जर्मनी और सोवियत संघ के बीच घमासान लड़ाई हुई।
(ख) दूसरे मोर्चे में अमेरिका, इंगलैण्ड, रूस और फ्रांस देश आते थे। जर्मन सेना 6 जून, 1944 को दूसरे मोर्चे से परास्त हुई ।
(ग) अमेरिका ने पहला एटम बम 6 अगस्त, 1945 को जापान के हिरोशिमा नामक शहर पर गिराया। फलत: हिरोशिमा का नामोनिशान मिट गया।
(घ) 9 अगस्त, 1945 को दूसरा एटम बम नागासाकी शहर पर गिराया गया और नागासाकी भी नेस्तनाबूद हो गया। फलस्वरूप जापान ने आत्म-समर्पण कर दिया जिससे द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हो गया ।
(ङ) जापान ने ।

22. बंगाल तथा बिहार के नील उत्पादक किसानों की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। विशेषकर बिहार में नीलहे गोरों द्वारा तीनकठिया व्यवस्था प्रचलित की गयी थी, जिसमें किसानों को अपनी भूमि के 3/20 हिस्से पर नील की खेती करनी होती थी। यह सामान्यतः सबसे उपजाऊ भूमि होती थी। किसान नील की खेती नहीं करना चाहते थे क्योंकि इससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती थी । यद्यपि 1908 ई० में तीनकठिया व्यवस्था में कुछ सुधार लाने की कोशिश की गई थी, परन्तु इससे किसानों की गिरती हुई हालत में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। बागान मालिक किसानों को अपनी उपज एक निश्चित धनराशि पर केवल उन्हें ही बेचने के लिए बाध्य करते
थे और यह राशि बहुत ही कम होती थी। इस समय जर्मनी के वैज्ञानिकों ने कृत्रिम नीले रंग का उत्पादन करना शुरू कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप विश्व के बाजारों में भारतीय नील की माँग गिर गई। चम्पारण के अधिकांश बागान मालिक यह महसूस करने लगे कि नील के व्यापार में अब उन्हें अधिक मुनाफा नहीं होगा । इसलिए मुनाफे को बनाये रखने के लिए उन्होंने अपने घाटों को किसानों पर लादना शुरू कर दिया। इसके लिए जो रास्ते उन्होंने अपनाए उसमें किसानों से यह कहा गया कि यदि वे उन्हें एक बड़ा मुआवजा दे दें तो किसानों को नील की खेती से मुक्ति मिल सकती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने लगान में अत्यधिक वृद्धि कर दी।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) नील उत्पादक किसानों की स्थिति कैसी थी ?
(ख) किसान नील की खेती क्यों नहीं करना चाहते थे ?
(ग) 1908 ई० में क्या सुधार लाने की कोशिश की गई थी ?
(घ) कृत्रिम नीले रंग का उत्पादन किसने शुरू कर दिया था ?
(ङ) चम्पारण के बागान मालिक क्या महसूस करने लगे ?
(च) किसानों को नील की खेती से मुक्ति के लिए कौन से रास्ते बताए गए ?

उत्तर
(क) नील उत्पादक किसानों की स्थिति बहुत ही दयनीय थी।
(ख) किसान नील की खेती नहीं करना चाहते थे क्योंकि इससे भूमि की उर्वरता कम हो जाती थी।
(ग) 1908 ई० में तीनकठिया व्यवस्था में कुछ सुधार लाने की कोशिश की गई थी।
(घ) कृत्रिम नीले रंग का उत्पादन जर्मनी के वैज्ञानिकों ने शुरू कर दिया था।
(ङ) चम्पारण के बगान मालिक यह महसूस करने लगे कि नील के व्यापार में अब उन्हें अधिक मुनाफा नहीं होगा।
(च) किसानों को नील की खेती से मुक्ति के लिए एक बड़ा मुआवजा देने को कहा गया।

23. लोभी मनुष्य की मानसिक स्थिति विचित्र सी होती है धन के प्रति उसकी ललक की तीव्रता और उत्कटता को देखकर ऐसा लगता है, मानो वह सामान्य इन्सान नहीं हो। सामान्य इन्सान ललक की तीव्रता का शिकार होकर, तज्जन्य अशांति एवं अस्थिरता को स्वीकार कर ही नहीं सकता। धन इकट्ठा करना सभी चाहते हैं; लेकिन लोभी का धन इकट्ठा करना कुछ और ही है। वह बहुधा धन इसलिए इकट्ठा करता है जिसमें उसे किसी समय उसकी कमी न हो, परन्तु उसे उसकी कमी हमेशा बनी ही रहती है। पहले उसकी कमी कल्पित होती है, परन्तु पीछे वह यथार्थ, असली हो जाती है; क्योंकि घर में धन रहने पर भी वह उसे काम में नहीं ला सकता । लोभ से असंतोष की वृद्धि होती है और संतोष का सुख खाक में मिल जाता है। लोभ से भूख बढ़ती है और तृप्ति घटती है। लोभ से मूलधन व्यर्थ बढ़ता है और उसका उपयोग कम होता है। लोभी का धन देखने के लिए, वृथा रक्षा करने के लिए और दूसरों को छोड़ जाने के लिए होता है। ऐसे धन से क्या लाभ ? ऐसे धन को इकट्ठा करने में अनेक कष्ट उठाने की अपेक्षा संसार-भर
में जितना धन है उसे अपना ही समझना अच्छा है

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) लोभी हमेशा धन के अभाव का अनुभव क्यों करता है ?
(ख) लोभी का धन किसके काम आता है ?
(ग) लोभी मनुष्य सामान्य इनसान नहीं होता; क्यों ?
(घ) लोभ बुरा है, क्यों ?
(ङ) एक उचित शीर्षक दें।

उत्तर
(क) लोभी व्यक्ति कभी संतुष्ट नहीं होता, इसलिए हमेशा धन का अभाव अनुभव करता है ।
(ख) लोभी का धन देखने के लिए, वृथा रक्षा करने के लिए और दूसरों को छोड़ जाने के लिए होता है ।
(ग) लोभी मनुष्य सामान्य इन्सान नहीं होता है क्योंकि उसकी मानसिक स्थिति विचित्र सी होती है ।
(घ) लोभ बुरा है क्योंकि उससे लोभी को संतुष्टि नहीं मिलती ।
(ङ) शीर्षक: ‘लोभ की प्रवृत्ति’ ।

24. कहानी अपनी कथा – वृत्ति के कारण संसार की प्राचीनतम विधा है । गल्प, कथा, आख्यायिका, कहानी इन अनेक नामों से आख्यात- विख्यात कहानी का इतिहास विविधकोणीय है । युगान्तर के साथ कहानी में परिवर्तन हुए हैं और इसकी परिभाषाएँ भी बदली हैं। कहानी का रंगमंचीय संस्करण है एकांकी । इसी तरह उपन्यास का रंगमंचीय संस्करण है नाटक । लेकिन उपन्यास और कहानी अलग-अलग हैं । कहानी में एकान्वित प्रभाव होता है, उपन्यास में समेकित प्रभावान्विति होती है । कहानी को बुलबुला और उपन्यास को प्रवाह माना गया है। कहानी टार्चलाइट है, किसी एक बिन्दु या वस्तु को प्रकाशित करती है, उपन्यास दिन के प्रकाश की तरह शब्दों को समान रूप से प्रकाशित करता है। कहानी में एक ओर एक घटना ही होती है । उपन्यास में प्रमुख और गौण कथाएँ होती हैं। कहानी ध्रुपद की तान की तरह है, आरम्भ होते ही समाप्ति का सम-विषम उपस्थित हो जाता है । उपन्यास शास्त्रीय संगीत का आलाप है। आलाप में आधी रात गुजर जाती है। कुछ लोग दर्शक दीर्घा में सो जाते हैं, कुछ घर लौट जाते हैं। पर कहानी शुरू हो गयी तो पढ़ने वाले को खत्म तक पहुँचने को लाचार कर देती है चाहे परोसा गया खाना ठंडा हो या डाकिया दरवाजे पर खड़ा है। कहानी प्रमुख हो जाती है। उपन्यास पुस्तक से निकलकर पाठक के साथ शौचालय, शयनगृह, चौराहा सड़क सर्वत्र चलने
लगता है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) उपर्युक्त गद्यांश का एक समुचित शीर्षक दें।
(ख) ‘कहानी’ अन्य किन नामों से आख्यात विख्यात है ?
(ग) कहानी और उपन्यास में मुख्य अन्तर क्या है ?
(घ) उपन्यास पुस्तक से निकल कर पाठक के साथ कहाँ कहाँ चलने लगता है ?
(ङ) कहानी पाठक को किस प्रकार लाचार कर देती है ?
(च) संसार की प्राचीनतम विधा कहानी क्यों है ?

उत्तर
(क) शीर्षक: ‘कहानी की कथा – वृत्ति’ ।
(ख) कहानी गल्प, कथा, आख्यायिका आदि नामों से आख्यात विख्यात है।
(ग) कहानी में एकान्वित प्रभाव होता है, उपन्यास में समेकित प्रभावान्विति होती है इसलिए कहानी आरम्भ होते ही समाप्ति का सम-विषम होने को उत्सुक हो जाती है जबकि उपन्यास शास्त्रीय संगीत के आलाप की तरह उबाऊ हो जाता है ।
(घ) उपन्यास पुस्तक से निकलकर पाठक के साथ-साथ हर जगह विचरण करने लग जाता है ।
(ङ) कहानी शुरू हो गयी तो पढ़ने वाले को खत्म तक पहुँचने को लाचार कर देती है, अर्थात् उसमें इतनी रोचकता होती है कि पूरी कहानी को एक बार में ही समाप्त कर देने की प्रवृत्ति आ जाती है ।
(च) कहानी कहने और सुनने की प्रवृत्ति मानव में आदिकाल से चली आ रही है। हमारे प्राचीन वाङ्मय – वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद्, महाभारत, रामायण आदि में अनेक कथाएँ बिखरी पड़ी हैं। इसी प्रकार बौद्ध जातक, पंचतंत्र, हितोपदेश, वृहत कथा, सरित्सागर, बैताल पंचविंशतिका आदि अनेक प्रकार की कथाओं का संग्रह हैं । यही कथा – वृत्ति है जिसके कारण कहानी संसार की प्राचीनतम विधा है ।

25. आज आतंकवाद ने समूचे विश्व को हिलाकर रख दिया है। विश्व शक्ति का दावा करने वाला अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है । भारतवर्ष के अधिकांश राज्य भी इससे जूझ रहे हैं। हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान के सहयोग एवं प्रोत्साहन से भारत में हमेशा हिंसा तांडव नृत्य चलता रहता है। हम मूकदर्शक बने सीमा पार से प्रायोजित इस आतंकवाद का मुँहतोड़ जवाब भी नहीं दे पाते। प्राकृतिक आपदाओं में हुए जानमाल के नुकसान को तो सरकार प्रशासन यह कहकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं, कि इस पर मानव का कोई जोर नहीं किन्तु मानव के द्वारा मानव की हत्या के ऐसे सुनियोजित षड्यंत्रों का क्या कोई प्रतिकार अथवा समाधान हमारे कर्णधारों के पास नहीं है ? प्रश्न यह उठता है कि हमारी सरकार और नीति नियंता पुराधाओं की ऐसी क्या विवशता है कि वे भारतवर्ष में मकड़जाल की तरह फैले इस आतंकवादी रूपी दैत्य का संहार नहीं कर सकते। यदि हमने इसी तरह चुप्पी साधे रखी तो वह दिन दूर नहीं जब शत्रु हमारे धैर्य को कायरता मान कर कभी हमारे घर के अन्दर भी घुसने से परहेज नहीं करेगा। हम कह सकते हैं कि राजनेताओं की दलगत संकीर्णता एवं राजनीतिक स्वार्थ भाव से ऊपर उठकर एकजुट होकर कुछ ठोस पहल हेतु प्रयत्न करना चाहिए।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) आतंकवाद विश्व के लिए चुनौती है। कैसे ?
(ख) लेखक सरकार और नीति नियंताओं से क्या अपेक्षा करता है?
(ग) राष्ट्रहित में राजनेताओं को क्या करना चाहिए ?
(घ) सुनियोजित और प्रायोजित पदों में प्रयुक्त उपसर्ग बताएँ ।
(ङ) एक उचित शीर्षक दें

उत्तर
(क) आज आतंकवाद समूचे विश्व में फैला हुआ है। विश्व शक्ति का दावा करने वाला अमेरिका भी इससे अछूता नहीं है । इस प्रकार यह विश्व के लिए चुनौती है।
(ख) लेखक सरकार और नीति नियंताओं से आतंकवाद का प्रतिकार की अपेक्षा करता है।
(ग) राष्ट्रहित में राजनेताओं को दलगत संकीर्णता तथा राजनीतिक स्वार्थ भाव से ऊपर उठकर एकजुट होकर कुछ ठोस पहल हेतु प्रयत्न करना चाहिए।
(घ) सु + नि और प्र + आ ।
(ङ) शीर्षक : ‘आतंकवाद और विश्व’ ।

26. पुरुषार्थी एवं श्रमशील व्यक्ति ही संसार में अपने अस्तित्व की रक्षा करने’ में सफल हो सकता है। ‘वीर भोग्या वसुन्धरा’ का ध्येय मंत्र ही मानव मात्र को उसके निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने में सशक्त संबल है। अपने जीवन की संघर्षमय यात्रा में प्रत्येक व्यक्ति को अनेकानेक विघ्न बाधाओं व विपत्तियों से दो-चार होते हुए निरन्तर कर्म पथ पर निरन्तर अग्रसर होना होता है। कर्मरत मनुष्य देर-सबेर अपने अभिष्ट की प्राप्ति कर ही लेता है, जबकि कर्मभीरु या कामचोर व्यक्ति भाग्य को कोसता हुआ सदैव दुखी या कुंठित रहता है। अपना बहुमूल्य समय और कई सुअवसर खोकर भाग्यवादी व्यक्ति कभी भी अपनी मनोरथ सिद्धि नहीं कर पाता जबकि अनवरत संघर्ष एवं कर्म के मार्ग में संलग्न कर्मवीर को आत्म संतोष तो होता ही है। वह पूरे समाज के लिए भी एक आदर्श प्रतिमूर्ति बन जाता है। वास्तव में अपने सपनों को साकार करने के लिए व्यक्ति को पुरुषार्थ का मार्ग आवश्यक रूप से चुनना पड़ता है । अपने पौरुष के द्वारा परिश्रमी व्यक्ति अपनी भाग्य की रेखाओं को भी अपने अनुकूल बना लेता है। ‘भाग्यं फलति सर्वत्रं न क्रिया न च पौरुषम्’ उक्ति से कर्महीन व्यक्ति अपना बचाव नहीं कर सकता, क्योंकि कर्म की प्रेरणा देने वाली गीता- योग, ज्ञान और कर्म में तल्लीन रहने की सीख देती है ? यह सार्वभौम सत्य है कि पुरुषार्थ एवं कर्मपरायण के द्वारा ही जीवन में चतुर्थ वर्ग अर्थ, धर्म, काम, मोक्षादि फलों की प्राप्ति संभव है। इसलिए व्यक्ति को जीवन में प्रमाद और आलस्य त्याग कर अनवरत कर्म पथ पर संलग्न होना चाहिए।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) अपने अस्तित्व की रक्षा करने में कैसा व्यक्ति सफल हो सकता है?
(ख) इस पृथ्वी को कैसा व्यक्ति भोग सकता है?
(ग) भाग्यवादी लोगों की आकांक्षाएँ पूर्ण क्यों नहीं हो पातीं ?.
(घ) लक्ष्य प्राप्ति के बाद कर्मवीर को समाज से क्या प्राप्त होता है ?.
(ङ) कर्म का हमारे जीवन में क्या महत्व है ?
(च) चतुर्थ वर्ग का विग्रह कर उनका नाम लिखें।

उत्तर
(क) पुरुषार्थी एवं श्रमशील व्यक्ति ही संसार में अपने अस्तित्व की रक्षा करने में सफल हो सकता है।
(ख) अनेकानेक विघ्न-बाधाओं व विपतियों से बिना विचलित हुए अपने कर्मपथ पर निरंतर अग्रसर व्यक्ति ही इस पृथ्वी को भोग सकता है।
(ग) भाग्यवादी लोग अपने कर्म नहीं कर भाग्य के भरोसे बैठे हुए रहते हैं, इसीलिए उनकी आकांक्षाएँ पूर्ण नहीं हो पाती हैं।
(घ) लक्ष्य प्राप्ति के बाद कर्मवीर समाज में आदर्श प्रतिमूर्ति बन जाता है।
(ङ) कर्म के द्वारा व्यक्ति अपने लक्ष्य को प्राप्त करता है।
(च) चतुर्थ का वर्ग – अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष।

27. साम्प्रदायिक दंगों में भगत जी सड़क पर नाच नाचकर हिन्दू-मुस्लिम एकता के पद गाते थे। दोनों तरफ के गुंडों को अपनी चीलम पिलाते थे। उनके मन की भड़क सुनते और उनको सूक्ति शैली में उपदेश देते। एक बार भगत जी कहीं गायब हो गये। किसी मुसीबत में फँसे मुसलमान परिवार को किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने गये थे। हिन्दुओं ने मुसलमानों और मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आशंका की। बड़ी भीषण तैयारियाँ हुईं, तभी भगत जी प्रकट हो गये और गलियों में फूटा कनस्तर बजा-बजाकर गाते फिरे – “या जग अंधा मैं केहि समुझावों ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) भगत जी किस प्रकार के गुंडों को उपदेश देते थे?
(ख) भगत जी के गायब हो जाने का क्या कारण था?
(ग) भगत जी के गायब हो जाने से समाज में क्या प्रतिक्रिया हुई ?
(घ) “या जग अंधा में केहि समुझावों” का तात्पर्य क्या है?
(ङ) भगत जी किस प्रकार के पद गाते थे ?

उत्तर
(क) भगत जी हिन्दू-मुस्लिम के गुण्डों को उपदेश देते थे।
(ख) भगत जी के गायब होने का कारण था कि किसी मुसीबत में फँसे मुसलमान परिवार को किसी सुरक्षित स्थान में पहुँचाने गये थे ।
(ग) भगत जी के गायब होने से समाज में हिन्दुओं ने मुसलमानों पर और मुसलमानों ने हिन्दुओं पर आशंका की ।
(घ) दिए गए अंश का अर्थ है कि जब सभी व्यक्ति नासमझ हों तो उन्हें समझाना कठिन है।
(ङ) भगत जी एकता के पद गाते थे ।

28. मनुष्य रूपी चरित्र की धार तलवार है। अगर इस धार में तीक्ष्णता है, तो यह तलवार भले ही लोहे की हो- अपने काम में अधिक कारगर सिद्ध होती है। इसके विपरीत यदि इस तलवार की धार मोटी है, भद्दी है, तो वह तलवार-सोने की ही क्यों न हो – हमारे किसी काम की नहीं हो सकती। इस प्रकार यदि किसी का चरित्र ही नष्ट हो गया हो, तो वह मनुष्य मुर्दे से बदतर है, क्योंकि मुर्दा तो किसी और का बुरा नहीं कर सकता, पर एक चरित्रभ्रष्ट मनुष्य अपने साथ रहनेवालों को भी अपने ही रास्ते पर ले जाकर अवनति एवं सत्यानाश के भयावह गड्ढे में ढकेल
सकता है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) मनुष्य का चरित्र कैसा होना चाहिए?
(ख) जीवित मनुष्य मुर्दा से भी बदतर कब हो जाता है?
(ग) चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति के संगति का प्रभाव कैसा होता है?
(घ) एक उचित शीर्षक दें।
(ङ) मनुष्य महत्त्वहीन कब हो जाता है ?

उत्तर
(क) मनुष्य का चरित्र स्वस्छ होना चाहिए।
(ख) जब मनुष्य चरित्रभ्रष्ट हो जाता है, तो वह जीवित मनुष्य मुर्दा से भी बदतर हो जाता है।
(ग) चरित्रभ्रष्ट व्यक्ति के संगति का प्रभाव अपने साथ रहनेवालों को भी अपने ही रास्ता पर ले जाकर अवनति एवं सत्यानाश के भयावह गड्ढे में धकेल सकता है।
(घ) शीर्षक ‘मनुष्य और चरित्र’।
(ङ) चरित्र नष्ट हो जाने पर मनुष्य महत्त्वहीन हो जाता है ।

29. एक गुरुकुल था विशाल और प्रख्यात । उसके आचार्य भी बहुत विद्वान थे। एक दिन आचार्य ने सभी छात्रों को आंगन में एकत्रित किया और उनके सामने एक समस्या रखी कि उन्हें अपनी कन्या के विवाह के लिए धन की आवश्यकता है। कुछ धनी परिवार के बालकों ने अपने घर से धन लाकर देने की बात कही। किन्तु गुरुजी ने कहा कि इस तरह तो आपके घरवाले मुझे लालची समझेंगे। लेकिन फिर गुरु जी ने एक उपाय बताया कि सभी विद्यार्थी चुपचाप अपने-अपने घरों से धन लाकर दें, मेरी समस्या सुलझ जायेगी। लेकिन यह बात किसी को पता नहीं चलनी चाहिए।
सभी छात्र तैयार हो गये । इस तरह गुरुजी के पास धन आना शुरू हो गया । लेकिन एक बालक कुछ नहीं लाया। गुरुजी ने उससे पूछा कि क्या उसे गुरु की सेवा नहीं करनी है? उसने उत्तर दिया, “ऐसी कोई बात नहीं है; लेकिन मुझे ऐसी कोई जगह नहीं मिली जहाँ कोई देख न रहा हो। ” गुरुजी ने कहा, “कभी तो ऐसा समय आता होगा जहाँ कोई न देख रहा हो। ” गुरुजी का भी ऐसा ही आदेश था ।
तब वह बालक बोला, “गुरुदेव ठीक है पर ऐसे स्थान में कोई रहे न रहे: मैं तो वहाँ रहता हूँ। कोई दूसरा देखे न देखे, मैं स्वयं तो अपने कुकर्मों को देखता हूँ।” आचार्य ने गले लगाते हुए कहा, ” तू मेरा सच्चा शिष्य है। क्योंकि तूने गुरु के कहने पर भी चोरी नहीं की। यह तेरे सच्चे चरित्र का सबूत है । ” तू ही मेरी कन्या का सच्चा और योग्य वर है। अपनी कन्या का विवाह उससे कर दिया। विद्या ऊँचे चरित्र का निर्माण करती है और उन्नति के शिखर पर ले जाती है।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में):
(क) आचार्य ने अपने शिष्यों को बुलाकर क्या कहा ?
(ख) कुछ न ला सकने वाले शिष्य पर आचार्य क्यों प्रसन्न हुए?
(ग) आचार्य को किस धन की खोज थी? वह उन्हें किस रूप में मिला?
(घ) गुरुकुल के आचार्य किस प्रकार के व्यक्ति थे?
(ङ) लोक उन्नति के शिखर पर कैसे पहुँचते हैं?
(च) इस गद्यांश का उचित शीर्षक दें।

उत्तर
(क) आचार्य ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा कि अपने कन्या के विवाह के लिए धन की आवश्यकता है।
(ख) कुछ नं ला सकनेवाले शिष्य पर आचार्य इसलिए प्रसन्न हुए कि गुरु के कहने पर भी चोरी नहीं की ।
(ग) आचार्य की कन्या के लिए सच्चरित्र व्यक्ति रूपी धन की खोज थी। वह उन्हें सच्चरित्र शिष्य के रूप में मिला ।
(घ) गुरुकुल के आचार्य बहुत विद्वान थे ।
(ङ) सच्चरित्रता के बल पर उन्नति के शिखर पर पहुँचते हैं।
(च) शीर्षक: ‘गुरु सेवा’ ।

30. बिठोबा के आनन्द का ठिकाना न था। वह एक हरिजन बालक था। बापू ने हरिजन – उद्धार के लिए अनशन रखा हुआ था। उन्होंने बालक के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, “बिठोबा मैं तुम्हारे लाए संतरे से ही अनशन तोड़ गा ।” बिठोबा एक-एक पैसा जोड़ने लगा। किसी का बोझा उठा देता, किसी के यहाँ झाड़ू लगा देता और किसी का कूड़ा बस्ती से दूर फेंक आता। वह इतने पैसे जोड़ना चाहता था कि दो चार अच्छे संतरे खरीद सके, पर उसकी समस्या हल नहीं हो रही थी। बापू का अनशन टूटने का दिन भी आ गया।
बिठोबा आनन्द में मग्न सब से कहता, “कल बापू मेरे संतरे से अपना अनशन तोड़ेंगे।” लोग उसे सनकी समझते । वे हँसते हुए कहते, “यह सौभाग्य तो बड़ों-बड़ों को भी दुर्लभ है, किस गिनती में हो! टोकरों के टोकरे संतरे आ रहे हैं।” बिठोबा सोंच में पड़ गया पर संतरे तो खरीदने ही थे। संतरे के भाव जान वह दंग रह गया। मेरे पास तो चार ही आने हैं। मुझे चार संतरे तो चाहिए ही, तभी एक गिलास रस निकलेगा। एक फलवाले ने उसे चार आने में चार छोटे-छोटे संतरे उसके हाथ में थमा दिए । बिठोबा संतरे लेकर दौड़ पड़ा। बापू के अनशन तोड़ने का समय हो चला
था। सब बापू की जीवन रक्षा के लिए प्रार्थना कर रहे थे। ताजा रस निकाला जा रहा था, पर बापू राम धुन गाते हुए भी बिठोबा की प्रतीक्षा में आँख बिछाए थे। तभी दौड़ता हुआ बिठोबा आया । पर कोई उसे भीतर जाने दे तो । बापू ने पूछा, “बिठोबा नहीं आया?” खोज होने लगी। किसी ने पुकारा, ‘बिठोबा !’ ‘जी हाँ, ‘ कहते-कहते उसका गला रुँध गया। “अरे, जल्दी भीतर चलो, बापू तुम्हें बुला रहे हैं। वे तेरे संतरों की बाट देख रहे हैं।” उसने संतरे बापू के हाथ में दे दिए। बापू ने बिठोबा के सिर पर हाथ फेरते हुए उन्हीं संतरों का रस पीकर अनशन तोड़ा।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) बिठोबा कौन था? वह पैसे क्यों जोड़ना चाहता था?.
(ख) पैसे इकट्ठे करने के लिए विठोबा को किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा ?
(ग) बिठोबा सनकी है-लोग उसके बारे में ऐसा क्यों सोचते थे?
(घ) बिठोबा ने कितने पैसे इकट्ठे किए और उसका क्या खरीदा?
(ङ) अनशन तोड़ने के लिए बापू किसकी बाट जोह रहे थे?
(च) एक समुचित शीर्षक दें।

उत्तर
(क) बिठोबा एक हरिजन बालक था। वह बापू को अपने संतरे से अनशन तोड़वाना चाहता था, इसलिए संतरा के लिए पैसे जोड़ना चाहता था ।
(ख) पैसा इकट्ठा करने के लिए बिठोबा किसी का बोझ उठा देता, किसी के यहाँ झाडू लगा देता और किसी का कूड़ा बस्ती से दूर फेंक आता ।
(ग) बिठोबा कहता कि कल बापू मेरे संतरे से अनशन तोड़ेंगे। लोग उसे सनकी समझते क्योंकि यह सौभाग्य बड़ों-बड़ों को नसीब नहीं था, उसकी क्या गिनती थी, बापू के लिए तो टोकड़ों के टोकड़े संतरे आ रहे थे।
(घ) बिठोबा ने चार आने पैसे इकट्ठा किये और उससे चार छोटे-छोटे संतरे खरीदे।
(ङ) अनशन तोड़ने के लिए बापू बिठोबा की बाट जोह रहे थे ।
(च) शीर्षक : ‘हरिजन’।

31. कबीर अपने समय के उत्कट संत और उच्च कोटि के विचारक थे । इनका जन्म सन् 1399 ई० के लगभग वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ था। जुलाहा जाति के नीमा और नीरू दम्पति ने इनका लालन-पालन किया। बड़े होने पर कबीर ने भी जुलाहे का ही धंधा. स्वीकार किया तथा अपनी रचनाओं में भी इस व्यवसाय से सम्बद्ध चरखा, पूनी, ताना-बाना आदि उपमानों का प्रतीक रूप में प्रयोग किया है। इनकी मृत्यु 1495 ई० में हुई। कबीर मूलतः कवि नहीं वरन् संत थे। इन्होंने शास्त्रों का ज्ञान पंडितों और साधुओं से सुनकर प्राप्त किया था। ये पढ़े लिखे नहीं थे। इन्होंने स्वयं कहा है- ‘मसि कागद छूयौ नहीं कलम गहौ नहीं हाथ। ‘ परन्तु फिर भी इनकी कविता में काव्य के अनेक तत्व अनायास मिल जाते हैं। स्वामी रामानन्द इनके गुरु थे। उन्हीं के उपदेशों द्वारा इन्हें वेदांत और उपनिषदों का ज्ञान प्राप्त हुआ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) कबीर कौन थे ?
(ख) कबीर का जन्म कब और कहाँ हुआ ?
(ग) कबीर की रचनाओं में प्रतीकात्मक रूप में किसका प्रयोग हुआ है तथा क्यों ?
(घ) कबीर के गुरु कौन थे ? उनसे इन्हें किसका ज्ञान प्राप्त हुआ ?
(ङ) इनकी मृत्यु कब हुई ?

उत्तर
(क) कबीर अपने समय के उत्कट संत और उच्चकोटि के विचारक थे।
(ख) कबीर का जन्म सन् 1399 ई० में वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में हुआ।
(ग) कबीर की रचनाओं में प्रतीकात्मक रूप में चरखा, पूनी, ताना-बाना आदि उपमानों का प्रयोग हुआ है, क्योंकि यह जुलाहे का व्यवसाय से सम्बद्ध था।
(घ) कबीर के गुरु स्वामी रामानन्द थे । उनसे इन्हें ‘वेदान्त और उपनिषदों’ का ज्ञान प्राप्त हुआ।
(ङ) 1495 ई० में ।

32. भारतवर्ष ने कभी भी वस्तुओं के संग्रह को महत्व नहीं दिया । उस दृष्टि में मनुष्य के भीतर जो महान आंतरिक तत्त्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है। लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि विकार मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान रहते हैं, पर उनको प्रधान शक्ति मान लेना और अपने मन और बुद्धि को उन्हीं के इशारे पर छोड़ देना बहुत निकृष्ट आचरण हैं । भारतवर्ष ने कभी भी इनको महत्व नहीं दिया, इन्हें सदा संयम के बंधन में बाँधकर रखने का प्रयत्न किया है । परन्तु भूख की उपेक्षा नहीं की जा सकती, बीमार के लिए दवा की उपेक्षा नहीं की जा सकती, गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की उपेक्षा नहीं की जा सकती । हुआ यह कि इस देश के कोटि-कोटि दरिद्रजनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए अनेक कायदे कानून बनाये गये हैं जो कृषि, उद्योग, वाणिज्य, शिक्षा और स्वास्थ्य की स्थिति को अधिक उन्नत और सुचारू बनाने के लक्ष्य से प्रेरित है। अपने आप में यह लक्ष्य बहुत ही उत्तम है, परन्तु जिन लोगों को इन कार्यों में ‘लगना है उनका मन हमेशा पवित्र नहीं होता । प्रायः ही वे लक्ष्य भूल जाते हैं और अपनी ही सुख-सुविधा की ओर ज्यादा ध्यान देने लगते हैं । व्यक्ति – चित्त हमेशा आदर्शों द्वारा चालित नहीं होता ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) भारतवर्ष में क्या चरण और परम हैं ?
(ख) कौन-सा आचरण निकृष्ट है ?
(ग) किन-किन चीज़ों की उपेक्षा नहीं की जा सकती ?
(घ) भारतवर्ष में अनेक कायदे कानून क्यों बनाए गए हैं ?
(ङ) किन लोगों का मन हमेशा पवित्र नहीं होता ?
(च) प्रस्तुत गद्यांश का एक उचित शीर्षक दें।

उत्तर
(क) भारतवर्ष में मनुष्य के भीतर जो महान् आन्तरिक तत्त्व स्थिर भाव से बैठा हुआ है, वही चरम और परम है I
(ख) लोभ-मोह, काम-क्रोध आदि आचरण निकृष्ट है ।
(ग) भूखे, बीमार के लिए दवा तथा गुमराह को ठीक रास्ते पर ले जाने के उपायों की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।
(घ) भारतवर्ष में अनेक कायदे कानून दरिद्र जनों की हीन अवस्था को दूर करने के लिए अनेक कानून बनाये गये हैं । जिन लोगों को इन कार्यों को करना है, उनका मन हमेशा पवित्र नहीं होता है।
(च) शीर्षक ‘दरिद्रजन’ ।

33. मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द प्राप्ति है। यह तो सभी जानते हैं कि मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है। आवश्यकता की पूर्ति होने पर सभी को सुख होता है। पर, उस सुख और उत्सव के आनन्द में बड़ा फर्क है । आवश्यकता अभाव सूचित करती है। उससे यह प्रकट होता है कि हममें किस बात की कमी है। मनुष्य जीवन ही ऐसा है कि वह किसी भी अवस्था में यह अनुभव नहीं कर सकता कि उसके लिए कोई आवश्यकता नहीं रह गई है। एक के बाद दूसरी वस्तु की चिन्ता उसे सताती ही रहती है । इसलिए किसी एक आवश्यकता की पूर्ति से उसे जो सुख होता है, वह अत्यन्त क्षणिक होता है; क्योंकि तुरन्त ही दूसरी आवश्यकता उपस्थित हो जाती है । उत्सव में हम किसी बात की आवश्यकता का अनुभव नहीं करते। यही नहीं, उस दिन हम अपने काम-काज छोड़कर विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति करते हैं। यह आनन्द जीवन का आनन्द है, काम का नहीं ।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) मनुष्य किसलिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है?
(ख) उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य क्या है?
(ग) मनुष्य को एक के बाद दूसरी चिन्ता क्यों सताती रहती है?
(घ) आवश्यकता की पूर्ति का सुख क्षणिक क्यों होता है?
(ङ) किस दिन हम विशुद्ध आनन्द प्राप्त करते हैं ?

उत्तर
(क) मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता हैI
(ख) उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द की प्राप्ति है ।
(ग) मनुष्य की आवश्यकताएँ अनन्त हैं। मनुष्य एक आवश्यकता पूरी करता है, पुनः दूसरी उपस्थित हो जाती है। इसलिए मनुष्य को एक के बाद दूसरी वस्तु की चिन्ता सताते रहती है ।
(घ) मनुष्य की आवश्यकता की पूर्ति होने से उसे सुख मिलता है लेकिन शीघ्र ही दूसरी आवश्यकता उपस्थित हो जाने से पुनः मनुष्य चिंतित हो जाता है अर्थात् सुख अधिक देर नहीं रहता है । वह क्षणिक होता है ।
(ङ) उत्सव के दिन हम विशुद्ध आनन्द प्राप्त करते हैं ।

34. विश्वविद्यालय कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो समाज से काटकर अलग की जा सके। समाज दरिद्र है तो विश्वविद्यालय भी दरिद्र होंगे; समाज कदाचारी है, तो विश्वविद्यालय भी कदाचारी होंगे और समाज में अगर लोग आगे बढ़ने के लिए गलत रास्ते अपनाते हैं तो विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र भी सही रास्तों को छोड़कर गलत रास्तों पर अवश्य चलेंगे। विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में जो अशान्ति फैली है, जो भ्रष्टाचार फैला है, वह सब का सब समाज में फैलकर यहाँ तक पहुँचा है। समाज में जब सही रास्तों का आदर था, ऊँचे मूल्यों की कद्र थी, तब कॉलेजों में भी शिक्षक और छात्र गलत रास्तों पर कदम रखने से घबराते थे। लेकिन अब समाज
ने विशेषतः राजनीति ने, ऊँचे मूल्यों की अवहेलना कर दी और अधिकांश लोगों के लिए गलत रास्ते ही सही बन गये तो फिर उसका प्रभाव कॉलेजों और विश्वविद्यालयों पर भी पड़ना अनिवार्य हो गया। छात्रों की अनुशासनहीनता की जाँच करने वाले लोग परिश्रम तो खूब करते हैं, किन्तु असली बात बोलने में घबराते हैं। सोचने की बात यह है कि पहले के छात्र सुसंयत क्यों थे? अब वे उच्छृंखल क्यों हो रहे हैं? किसने किसको खराब किया है? चाँद ने सितारों को बिगाड़ा है या सितारों ने मिलकर चाँद को खराब कर दिया?

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) समाज से काटकर किसको अलग नहीं किया जा सकता?
(ख) विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र कब गलत रास्तों पर चलेंगे?
(ग) कब शिक्षक और छात्र गलत रास्ते पर कदम रखने से घबराते थे?
(घ) कौन. असली बात बोलने से घबराते हैं?
(ङ) ऊँचे मूल्यों की अवहेलना का नतीजा क्या हुआ?
(च) उपर्युक्त गद्यांश का एक समुचित शीर्षक दें।

उत्तर
(क) विश्वविद्यालय को समाज से काटकर अलग नहीं किया जा सकता ।
(ख) जब समाज के लोग आगे बढ़ने के लिए गलत रास्ते अपनाते हैं तब विश्वविद्यालय के शिक्षक और छात्र भी गलत रास्ते पर चलेंगे ।
(ग) जब समाज में सही रास्ते का आदर था, ऊँचे मूल्यों की कद्र थी तब शिक्षक और छात्र गलत रास्ते पर कदम रखने से घबराते थे ।
(घ) छात्रों की अनुशासनहीनता की जाँच करनेवाले लोग असली बात बोलने से घबराते हैं।
(ङ) ऊँचे मूल्यों की अवहेलना का परिणाम हुआ कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अशांति, भ्रष्टाचार एवं अनुशासनहीनता व्याप्त हो गया।
(च) शीर्षक: ‘समाज और विश्वविद्यालय’ ।

35. साहित्य के विकास में प्रतिभाशाली मनुष्यों की तरह जन-समुदायों और जातियों की विशेष भूमिका होती है। इसे कौन नहीं जानता कि यूरोप के सांस्कृतिक विकास में जो भूमिका प्राचीन यूनानियों की है, वह अन्य किसी जाति की नहीं है। जन-समुदाय जब एक व्यवस्था से दूसरी व्यवस्था में प्रवेश करता है, तब उसकी अस्मिता नष्ट नहीं हो जाती । प्राचीन यूनान अनेक गण समाजों में बँटा हुआ था। आधुनिक यूनान एक राष्ट्र है। यह आधुनिक यूनान अपनी प्राचीन संस्कृति से अपनी एकात्मकता स्वीकार करता है या नहीं? 19वीं सदी में शेली और बायरन ने अपनी स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले यूनानियों को ऐसी एकात्मकता की पहचान करवाने में बड़ा परिश्रम किया। भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान इस देश ने इसी तरह अपनी एकात्मकता पहचानी । इतिहास का प्रवाह ही ऐसा है कि वह विच्छिन्न है और अविच्छिन्न भी। मानव समाज बदलता है और अपनी पुरानी अस्मिता कायम रखता है। जो तत्त्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करते हैं, उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परम्परा के आधार पर निर्मित यह अस्मिता का ज्ञान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। बंगाल विभाजित हुआ और है, किन्तु जब तक पूर्वी और पश्चिमी बंगाल के लोगों को अपनी साहित्यिक परम्परा का ज्ञान रहेगा तब तक बंगाली जाति सांस्कृतिक रूप से अविभाजित रहेगी। विभाजित बंगाल से विभाजित पंजाब की तुलना कीजिए, तो ज्ञात हो जायेगा कि साहित्य की परम्परा का ज्ञान कहाँ ज्यादा है और कहाँ कम, और इस न्यूनाधिक ज्ञान के सामाजिक परिणाम क्या होते हैं । 

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) यूरोप के सांस्कृतिक विकास में किसकी भूमिका प्रधान रही है?
(ख) प्राचीन यूनान कितने गण समाजों में बँटा हुआ था?
(ग) यूनान ने अपनी एकात्मकता कब और किस तरह पहचानी ?
(घ) कौन-सा तत्व मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करता है?

उत्तर :
(क) यूरोप के सांस्कृतिक विकास में प्राचीन यूनानियों की भूमिका प्रधान रही है।
(ख) प्राचीन यूनान अनेक गण समाजों में बँटा हुआ था।
(ग) यूनान ने अपनी एकात्मकता 19वीं सदी में शेली और बायरन से पहचानी ।
(घ) पुरानी अस्मिता मानव समुदाय को एक जाति के रूप में संगठित करती है।

36. साहित्योन्नति के साधनों में पुस्तकालयों का स्थान महत्त्वपूर्ण है । इनके द्वारा साहित्य के जीवन की रक्षा, पुष्टि और अभिवृद्धि होती है । पुस्तकालय सभ्यता के इतिहास का जीता-जागता गवाह है। इसी के बल पर वर्तमान भारत को अपने अतीत के गौरव पर गर्व है । पुस्तकालय भारत के लिए कोई नई वस्तु नहीं है । लिपि के आविष्कार से आज तक लोग निरंतर पुस्तकों का संग्रह करते रहते हैं। पहले देवालय, विद्यालय और नवालय, इन संग्रहों के प्रमुख स्थान होते थे। आजकल साधारण स्थिति के पुस्तकालय में जितनी सम्पत्ति लगती है, उतनी उन दिनों कभी-कभी एक-एक पुस्तक की तैयारी में लग जाया करती थी। प्राचीन काल से मुगल सम्राटों के समय तक यही स्थिति रही । चीन, फ्रांस आदि सुदूर स्थित देशों से झुण्ड के झुण्ड विद्यानुरागी लम्बी यात्राएँ करके भारत आया करते थे।

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें (प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) उपर्युक्त गद्यांश का एक समुचित शीर्षक दें।
(ख) पुस्तकालयों के कारण भारत को क्या गौरव प्राप्त था ?
(ग) पुराने समय में पुस्तक की तैयारी में क्या व्यय होता था ?
(घ) साहित्य की उन्नति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन क्या है ?
(ङ) पहले पुस्तकालय किन-किन स्थानों पर हुआ करते थे ?
(च) पुस्तकालय का प्रारंभ कब से हुआ ?

उत्तर
(क) शीर्षक ‘साहित्योन्नति में पुस्तकालय का महत्त्व’ ।
(ख) पुस्तकालयों के कारण भारत को अपने अतीत के गौरव पर गर्व है
(ग) आजकल जितना व्यय एक साधारणं पुस्तकालय में होता है उतना पहले एक पुस्तक तैयार करने में होता था ।
(घ) साहित्य की उन्नति का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साधन है पुस्तकालय ।
(ङ) पहले देवालय, विद्यालय और नवालय इन स्थानों पर पुस्तकों का संग्रह किया जाता था ।
(च) पुस्तकालय का आरंभ लिपि के आविष्कार के समय से है ।

37. हमारी हिन्दी सजीव भाषा है। इसी कारण इसने अरबी, फारसी आदि के सम्पर्क में आकर इनके तो शब्द ग्रहण किए ही है, अब अँगरेजी के भी शब्द ग्रहण करती जा रही है। इसे दोष नहीं, गुण ही समझना चाहिए, क्योंकि अपनी इस ग्रहणशक्ति से हिन्दी अपनी वृद्धि कर रही है, ह्रास नहीं। ज्यों-ज्यों इसका प्रचार बढ़ेगा, त्यों-त्यों इसमें नये शब्दों का आगमन होता जायेगा। क्या भाषा की विशुद्धता के किसी भी पक्षपाती में यह शक्ति है कि वह विभिन्न जातियों के पारस्परिक संबंध को न होने दे या भाषाओं की सम्मिश्रण क्रिया में रुकावट पैदा कर दे ? यह कभी संभव नहीं। हमें तो केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि इस सम्मिश्रण के कारण हमारी भाषा अपने स्वरूप को तो नहीं नष्ट कर रही-कहीं अन्य भाषाओं के बेमेल शब्दों के मिश्रण से अपना रूप तो विकृत नहीं कर रही । अभिप्राय यह कि दूसरी भाषाओं के शब्द, मुहावरे आदि ग्रहण करने पर भी हिन्दी, हिन्दी ही बनी रही है या नहीं, बिगड़कर कहीं वह कुछ और तो नहीं होती जा रही है?

निम्नांकित प्रश्नों के उत्तर दें ( प्रत्येक 30 शब्दों में ) :
(क) प्रस्तुत गद्यांश का उचित शीर्षक दें।
(ख) सजीव भाषा से क्या तात्पर्य है?
(ग) हिन्दी में नये शब्दों का आगमन क्यों उचित है?
(घ) हिन्दी में नये शब्दों को अपनाते समय किस बात का ध्यान रखना चाहिए?
(ङ) भाषा की विशुद्धता क्या है?
(च) हिन्दी भाषा की किस विशेषता को दोष नहीं गुण माना गया है?

उत्तर
(क) शीर्षक: ‘हिन्दी की सजीवता ।
(ख) सजीव भाषा से तात्पर्य है इसका निरंतर वृद्धि या विकास करना ।
(ग) हिन्दी में नए शब्दों के आगमन से हिन्दी अपनी वृद्धि कर रही है।
(घ) हिन्दी में नए शब्दों को अपनाते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि इससे कहीं हिन्दी का स्वरूप तो नष्ट नहीं हो रहा।
(ङ) अन्य भाषाओं के सम्मिश्रण के कारण अपने स्वरूप को नष्ट न करे।
(च) हिन्दी में अन्य भाषाओं के शब्दों को ग्रहण करने की विशेषता को दोष नहीं गुण माना गया है।