बिहार में बाढ़ – Bihar mein Badh

भूमिका – यह विडंबना ही है कि अपने राज्य बिहार को अभी भी बाढ़ से छुटकारा नहीं मिला है। ‘बाढ़’ का अर्थ है बढ़ना, वृद्धि । यों तो किसी भी चीज की अत्यधिक वृद्धि दुःखदायी होती है, लेकिन जल का बढ़ना सबसे त्रासद होता है। खुशहाल पल बदहाली में बदल जाता है – सबकुछ उलट-पुलट हो जाता है। यही है बाढ़ और उसकी लीला।

बाढ़ के कारण / कारण — प्रायः जुलाई और अगस्त महीने में जब वर्षा होती है तो पहले मैदान, वन, बाग और तालाब भरकर तृप्त हो जाते हैं। नदियाँ इठलाती हुई चलती हैं; नाले मौज मनाने लगते हैं। लेकिन, जब वर्षा की झड़ी लग जाती है तो नदियाँ तटबंधों के अंकुश में नहीं रहतीं और किनारों को तोड़ बेरोक-टोक हहराती – घहराती चल पड़ती हैं।

बाढ़ का विकराल दृश्य/विभीषिका — जल जो पहले खेतों, नदियों और लोंगों को जीवनदाता प्रतीत हो रहा था, बाढ़ के समय जीवन लेता प्रतीत होने लगता है। देखते-ही-देखते खुशहाली बदहाली बन जाती है।

लाभ-हानि– बाढ़ आधुनिक युग का सबसे बड़ा अभिशाप है। खेतों की फसलें नष्ट होने लगती हैं, घर-द्वार तहस-नहस हो जाते हैं, मवेशी मर-खप जाते हैं और लोग-बाग बह जाते हैं। जो लोग बच जाते हैं उन्हें खाने को अन्न नहीं मिलता और न जलाने को सूखी लकड़ी, सोना तो अलग, खड़े होने को सूखी जमीन नहीं मिलती। सड़कें टूट जाती हैं, रेल लाइनें क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, नतीजातन यातायात की समस्या खड़ी हो जाती है। लोग कालकवलित हो जाते हैं। बिहार के इलाके प्रत्येक वर्ष बाढ़ में डूबते-उतराते हैं।

बाढ़ का दूसरा पहलू भी है। बाढ़ आने पर नयी मिट्टी उसके साथ बहकर आती है जिससे जमीन उपजाऊ हो जाती है, लेकिन इसकी तुलना में तबाही अधिक होती के बाद महामारियाँ अपना तांडव अलग करती हैं।

उपसंहार – बिहार जैसे राज्य के लिए बाढ़ एक अभिशाप है। आजादी के 62 वर्षों के दौरान जाने कितनी सरकारें आईं और गईं। हर बार वायदे किए गए, लेकिन बाढ़ पर लगाम न लगी । यह दुःख की बात है। इस समस्या का स्थायी समाधान ढूँढ़ा जाना चाहिए ताकि तबाही न फैले। इसके लिए जरूरी है तटबंधों का निरंतर रख-रखाव, नहरों की सफाई, रेगिस्तानी इलाकों में अतिरिक्त पानी का बहाव आदि। यह ठीक है कि राहत का प्रबंध सरकार करती है लेकिन राहत आते ही राजनीति शुरू हो जाती है। जरूरी है कि ऐसी नौबत न आए और अगर आए तो हर जरूरतमंद को राहत मिले।