प्राचीन स्वरूप — राज्य और व्यवस्था चलाने के लिए कुछ नीतियों की आवश्यकता होती है जिसे राजनीति कहा जाता है। राजनीति के लिए शिष्टाचार की आवश्यकता होती है। प्राचीन काल में व्यवस्थापक या कर्त्ता शिष्टाचार का पालन करते हुए नीति के तहत शासन व्यवस्था का संचालन करते थे। तब राजनीति का उद्देश्य अनाचार, भ्रष्टाचार, अन्याय आदि का निवारण कर जनता की सुख-समृद्धि के लिए व्यवस्था की जाती थी । व्यवस्थापक के आदर्श के अनुरूप जनता चलती थी, तब सुख-शांति पाती थी । भ्रष्टाचार तब भी था किन्तु उसका प्रभाव तथा विस्तार सीमित था और लोग उसका निवारण करने का प्रयास करते थे ।
वर्तमान स्थिति — आज परिस्थिति भिन्न है। आज राजनीति और भ्रष्टाचार में कोई फर्क नहीं दिखता। कारण आज की राजनीति ही भ्रष्ट हो गई है। आज की राजनीति हमारी न्याय व्यवस्था पर आधारित नहीं है वरन् अवसरवादिता पर आधारित है। आज समाज के व्यवस्थापक तथा जनता सामाजिक आवश्यकता के अनुसार न सोचकर व्यक्तिगत हित के अनुसार राजनीति का निर्धारण करना चाहते हैं, परिणामस्वरूप हितों की टकराहट होती है और राजनीति भ्रष्ट हो गयी है। फलतः आज राजनीति और भ्रष्टाचार का फासला समाप्त हो गया है।
सत्ता लोलुपता – पूर्व के समय में शासन व्यवस्था चलाने में सक्षम व्यक्ति ही राजनीति में स्थान पाने का प्रयास करते थे किन्तु आज अक्षम और भ्रष्ट व्यक्ति भी आर्थिक वर्चस्व के बल पर शासन सत्ता की ताकत पाने में सफल हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति सत्ता की प्राप्ति में नीति- अनीति सबका लाभ लेते हैं। आज राजनीति को व्यवसाय के रूप में मानकर इसे सबसे अधिक लाभकारी व्यवसाय के रूप में अपनाया जाता है। फलतः सत्ता लोलुपता बढ़ी है ।
भ्रष्ट आचरण का बोलबाला – आज की राजनीत और भ्रष्टाचार से नेता तथा जनता सब परेशान हैं। भ्रष्टाचार निवारण की शोर चारों ओर है किन्तु स्थिति यह है कि आज सब कोई केवल दूसरों में सुधार चाहते हैं, स्वयं में सुधार करना नहीं चाहते। फलस्वरूप भ्रष्ट आचरण का बोलबाला है। स्थिति सुधर नहीं पा रही।
समाधान और उपाय — आज लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था है जिसमें जनता ही सबकुछ होती है। वही नेता भी है, वही कार्यकर्त्ता भी और प्रजा, शासित या जनता भी। ऐसे में सार्वजनिक सुख और शांति के लिए हरेक जनता को स्वयं में सुधार लाना होगा तथा परिवार समाज के प्रबुद्ध एवं प्रमुख व्यक्तियों को इसका पहल करना होगा।